SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ १३१२, १३२०, १३२१, १३२९ की भी मूर्तियां सम्मिलित हैं। इस प्रकार दायीं ओरकी चतुर्थ वेदोपर पाषाणनिर्मित कृष्णवर्णकी द्वाराकृतिमें २४ तीर्थकर मूर्तियां बनी हुई हैं। यह द्वाराकृति ५८ इंच ऊंची है। द्वाराकृतिके मध्य ललाटपर छत्रत्रयी सुशोभित है। द्वाराकृतिके खुले हुए मध्यभागमें भगवान् नेमिनाथकी कृष्णवर्ण पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। प्रतिमा अत्यन्त मनोज्ञ है। इसकी अवगाहना २१ इंच है तथा यह संवत् १२५० में प्रतिष्ठित हुई थी। पहले इसके स्थानपर इस चौबीसीके साथ भगवान् ऋषभदेवकी खड्गासन मूर्ति विराजमान थी। यह संवत् १९०३ में प्रतिष्ठित की गयी थी। किन्तु संवत् १९४३ में आततायियोंने इस मूर्तिको खण्डित कर दिया। इस दुर्घटनामें गुफामें स्थित मूर्तियोंको भी क्षति पहुंची थी। इस काण्डके परिणामस्वरूप विमान निकालनेमें भी बाधा पड़ गयी थी। तब पारस्परिक सहमति और बोर्ड ( तत्कालीन रियासती बोर्ड) से विमान निकालनेकी आज्ञा प्राप्त हुई। ऋषभदेवकी खण्डित मूर्ति जलमें प्रवाहित कर दी गयी और उसके स्थानपर भगवान् नेमिनाथकी प्राचीन मूर्ति प्रतिष्ठित कर दी गयी। ___इसी पंक्तिमें अन्तिम वेदीपर पाषाणनिर्मित कृष्णवर्ण भगवान पार्श्वनाथकी भव्य मति विराजमान है। मूलनायक मूर्तिके साथ अन्य मूर्तियां भी वेदीपर विराजमान हैं जो क्रमशः संवत् १५४८, १२०८ और १३२४ को प्रतिष्ठित हैं। मूलनायक प्रतिमाकी प्रतिष्ठा सं. १९४९ फाल्गुन शुक्ल ५ है। मूर्तिके सिरपर सपं अपने ग्यारहमुखी फणों द्वारा आभा विकीर्ण कर रहा है। इस वेदोपर कांचका कार्य कलात्मक रीतिसे किया गया है। जिसके कारण इस वेदीको 'चतुरानवाली वेदी' कहकर पुकारा जाता है। इन तीनों वेदियोंके अतिरिक्त शेष दो वेदियोंमें से एक वेदीकी प्रतिष्ठा संवत् १९४३ में हुई व दूसरी श्वेत संगमरमरकी छह फुट अवगाहनावाली बाहुबली स्वामीकी खड्गासन प्रतिमा विक्रम संवत् २०२५ में श्री महावीरजी के पंचकल्याणक महोत्सवमें प्रतिष्ठित कराके यहाँ प्रतिष्ठित की गयी। इस मन्दिरको दीवारोंपर कुशल चित्रकारों द्वारा पौराणिक आख्यान आलेखित किये गये हैं। वे बोधप्रद तो हैं ही, चित्रकलाकी दृष्टिसे दर्शनीय भी हैं। छतके ऊपर मुख्य शिखरके निकट एक स्तम्भपर एक शिलालेख है, किन्तु उसका आशय अभी तक दुर्बोध बना हुआ है। शिलालेखमें शान्तिनाथको मूर्ति बनी हुई है तथा प्रारम्भमें शान्तिनाथका नामोल्लेख भी है किन्तु लेख अशुद्ध होनेके कारण उसे समझने में कठिनाई है। ___इस मन्दिरका फर्श और बाहरी सीढ़ियां आदि मकरानेकी हैं। इसका शिखर भूमितलसे ९० फीट ऊंचा है। ---- इस मन्दिरके अतिरिक्त बजरंगढ़ नगरमें दो मन्दिर और हैं। दूसरा मन्दिर क्षेत्रसे कुछ ही दूर बाजारके समीप मुख्य रास्तेपर स्थित है। इस मन्दिरको प्रतिष्ठा संवत् १९४९ में हुई थी। इस मन्दिरमें विराजमान प्रायः सभी मूर्तियां इसी उत्सवमें प्रतिष्ठित हुई थी। इसमें मूलनायकके रूपमें भगवान् पार्श्वनाथकी कृष्णवर्ण पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। क्षेत्र-मन्दिरके समान इस मन्दिरका भी बाहरी भाग तथा इसके शिखर अत्यन्त समुन्नत और भव्य हैं। कहा जाता है कि इस मन्दिरका निर्माण सेठ झोलूशाहने कराया था। इस मन्दिरके पृष्ठ भागमें धर्मशाला बनी हुई है। इसमें १४ कमरे, कुआं, विशाल सहन आदि बने हुए हैं। कहते हैं, पहले इस नगरमें जैनोंकी संख्या विशाल थी। उस कालमें सभी धार्मिक और सामाजिक आयोजन इसी स्थानपर होते थे। किन्तु समय परिवर्तनशील है। व्यापार आदिके कारण यहाँके अधिकांश जैन अन्य नगरों में चले गये, यहाँ तो अब कुछ ही जैन ३-११
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy