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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जन तीर्थ
२६७ उसने मालवाके इन गगनचुम्बी मन्दिरों और कलापूर्ण मूर्तियोंका भयंकर विनाश कर दिया; धारा, नलकच्छपुर, माण्डव, उज्जयिनी आदिके विशाल ग्रन्थ भण्डार हमामोंमें पानी गरम करनेके लिए जलाये गये। ___इस धर्मोन्मादके परिणामस्वरूप जैन साहित्य और कलाका भयंकर विनाश हुआ। आज जैनकला अवशेषोंके रूपमें मालवाके निम्नलिखित स्थानोंपर बिखरी हुई पड़ी है
___नावली, कालूखेड़ा, कवलाँ, कालाखेत, मोड़ी, भानपुरा, निममूर, ( अभिनव गिरनार) कुकड़ेश्वर, नीमच, खोर, मल्हारगढ़, झारडा, पिपल्या, मन्दसौर, पिपलोद, रिगणोद, रूणिजा, बदनावर, धार, भोपावर, कुक्षी, सुसारो, खट्टीली, राणापुर, नानपुर, भवा , निसरपुर, मनावर, धरमपुरी, धामनोद, माण्डव, नालछा, डिगथान, सागोंद, इन्दौर, हरसोल, काटाफोड़, कन्नोद, नेमावर, ऊन, देवास, नागदा, गोपावर, सोनकच्छ, गन्धावल, मेतवास, सिहोर, आष्टा, उज्जैन, झारड़ा, महतपुर, आलोद, आसामपुरा, कायथा, सुसनेर, लोहारी, सोयत, गोदल, महू, शाजापुर, सुन्दरसी, सारंगपुर, पचोर, कोटरा, बिहार, जामनेर, गुना, बजरंगढ़, देवली, बड़वानी, अंजड़, ओझर, नेवाली, कसरावद, सिद्धवरकूट, महेश्वर, चोली, विदिशा, रायसेन, मण्डीद्वीप, भोजपुर, आसापुर, पठारी, वसोदा, शान्तिखेर आदि।
जैन भट्टारकोंका पट्ट स्थान–गुप्तकालसे उज्जयिनीमें जैन भट्टारकोंका एक सुदृढ़ और व्यवस्थित पीठ-स्थान बना। इस परम्परामें निम्नलिखित दिगम्बराचार्य प्रसिद्ध हुए-(१) महाकीर्ति (सन् ६२९), (२) विष्णुनन्दि (सन् ६४७), (३) श्रीभूषण ( सन् ६६९), (४) श्रीचन्द्र ( सन् ६७८), (५) श्रीनन्दि (सन् ६९२), (६) देशभूषण ( सन् ६९८), (७) अनन्तकीर्ति (सन् ७०८), (८) धर्मनन्दि ( सन् ७२८), (९) विद्यानन्दि (सन् ८५१), (१०) रामचन्द्र (सन् ७८३), (११) रामकीर्ति ( सन् ७९०), (१२) अभयचन्द्र (सन् ८२१), (१३) नरचन्द्र (सन् ८४० ), (१४) नागचन्द्र (सन् ८५९), (१५) हरिनन्दि ( सन् ८८२), (१६) हरिश्चन्द्र ( सन् ८९१), (१७) महीचन्द्र (सन् ९२७), (१८) माषचन्द्र (सन् ९३३), (१९) लक्ष्मीचन्द्र ( सन् ९६६ ), (२०) गुणकीर्ति (सन् ९७० ), (२१) गुणचन्द्र ( सन् ९९१), (२२) लोकचन्द्र ( सन् १००९), (२३) श्रुतकीर्ति (सन् १०२२), (२४) भावचन्द्र ( सन् १०३७ ) और (२५) महीचन्द्र ( सन् १०५८)। .
___इस प्रकार सन् ६२९ से १०५८ तक अर्थात् ४२२ वर्ष तक यहां भट्टारकोंका व्यवस्थित पीठ रहा । मर्करा ताम्रपत्र, ऐहोल शिलालेख आदिसे ज्ञात होता है कि वि. सं. ५२६ में वज्रनन्दिने द्राविड़ संघकी स्थापना की थी। उसके मूलमें परवर्ती कालमें भट्टारक परम्परासे विकसित विशिष्ट आचरण पद्धतियोंके दर्शन होते हैं। इसी प्रकार शक सं. ६३४ में मुनि रविकीर्तिने ऐहोल ग्राममें जो मन्दिर बनवाया, उसके लिए उन्होंने भूमि-दान स्वीकार किया था। दिगम्बर मुनियों द्वारा वस्त्रधारण करनेकी परम्परा, मन्दिरों और मठोंका निर्माण और उनका अपने निवासके लिए उपयोग, उनके लिए भूमि-दानका स्वीकार, वैभवका संग्रह और प्रदर्शन आदि कारणोंसे दिगम्बर सम्प्रदायमें भट्टारक प्रथाको जन्म दिया और उसे व्यवस्थित रूप लेने में पर्याप्त समय लगा। किन्तु हमें लगता है, गुप्तकालसे जैन मुनियोंको जो राज्याश्रय और राजसम्मान प्राप्त हुआ, उसने उज्जयिनीमें गुप्तकालमें ही भट्टारक परम्पराका प्रारम्भ कर दिया और यहाँका भट्टारक पीठ चार
१. वी. एस. वाकणकरके लेखसे साभार उद्धृत । २. जैन हितैषी, भाग ६, अंक ७-८, पृष्ठ २८-३१।