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________________ २६६ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ चलाये जानेके सम्बन्धमें भी इतिहासकार एकमत नहीं हैं। कुछका मत है कि ई. सन् ७८ में उज्जयिनीके राजसिंहासनपर शक नरेश चष्टन आसीन हुआ। उसने ही दिग्विजयके बाद शक संवत्का प्रचलन किया था। इस प्रकार विक्रम संवत् और शक संवत् दोनोंके ही प्रचलनका श्रेय उज्जयिनीको है। ___ चन्द्रगुप्त प्रथमके कालमें गुप्तवंशकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। समुद्रगुप्तने वहाँसे हटाकर अयोध्याको अपनी राजधानी बनाया। चन्द्रगुप्त द्वितीयने सत्यसिंहके पुत्र, शक-नरेश रुद्रसिंहको हराकर लगभग सन् ३९५ में उज्जयिनीको अपनी राजधानी बनाया। उस समय तक उज्जयिनी शक नरेशोंकी राजधानी थी। उनके राज्यमें मालवा, कच्छ, सौराष्ट्र, सिन्ध और कोंकणके प्रदेश सम्मिलित थे। सातवीं शताब्दीमें, शंकराचार्यके कालमें उज्जयिनी नरेश सुधन्वने बौद्धोंके ऊपर भयानक अत्याचार किये और उन्हें भारतसे भागकर दूसरे देशोंमें शरण लेनेको बाध्य किया। उसने जैनोंके ऊपर भी भयंकर अत्याचार किये। किन्तु वह जैनोंको बौद्धोंके समान भगा नहीं सका। परमार वंशके शासनकालमें उज्जयिनीकी समृद्धि भी बढ़ी और यहां विद्वानोंका सम्मान भी बढ़ा। परमारवंशके राजा वाक्पतिराज मुंज और भोजके कालमें उज्जयिनी विद्वानों और विद्वत्ताका केन्द्र बन गयी थी। राजा भोजके सम्बन्धमें तो यह अनुश्रुति भी प्रचलित है कि वह प्रत्येक नवीन श्लोकपर विद्वान्को एक लाख रुपयेका पुरस्कार देता था और उसके राज्यमें प्रत्येक जातिके लोग संस्कृत भाषा और साहित्यके विद्वान् होते थे। राजा भोज वस्तुतः विद्वानोंका आश्रयदाता था। परमार वंशके राजाओंकी राजधानी धारा थी। भोजने उज्जयिनीको अपनी राजधानी बनाया। राजा मुंजकी राज्य-सभामें लाडबागड़ संघान्वयी गुणाकरसेनके शिष्य आचार्य महासेनका बड़ा प्रभाव था। मुंजराज तथा सिन्धुराजके मन्त्री पपंटने आपका बड़ा सम्मान किया था। इसी प्रकार माथुर संघान्वयी माधवसेनके शिष्य आचार्य अमितगतिको भी मुंजके दरबार में बड़ा सम्मान मिला। सुभाषित-रत्ल-सन्दोह, वर्धमान नीति, धर्मपरीक्षा, पंचसंग्रह, तत्त्वभावना, उपासकाचार, द्वात्रिंशिका और आराधना ये आपकी रचनाएं हैं। हलायुध, धनपाल, पद्मगुप्त, धनंजय. आदि अनेक जैन विद्वान् यहां रहते थे। इसी प्रकार राजा भोजकी सभामें जैनोंको विशेष सम्मान प्राप्त था। उन्होंने प्रभाचन्द्राचार्यका विशेष सम्मान किया था। दिगम्बर जैनाचार्य श्री शान्तिसेनने भोजकी सभामें अनेक विद्वानोंको वाद-विवादमें पराजित किया था। इसी प्रकार चतुर्विंशति प्रबन्धसे ज्ञात होता है कि आचार्य विशालकीतिके शिष्य मदनकीर्तिने परवादियोंपर विजय प्राप्त करके 'महाप्रामाणिक' पदवी प्राप्त की थी। कविश्रेष्ठ धनपालको विशेष सम्मान प्राप्त था। परमारवंशके अर्जुनवर्म, यशोवर्म, बल्लाल आदि राजाओंने भी इस परम्पराका निर्वाह किया। इस कालमें भी अनेक जैन विद्वानोंको राज्याश्रय मिलता रहा और अनेक कलापूर्ण जैन मन्दिरोंका निर्माण हुआ। देवपाल देवके समयमें इल्तुतमिशने सन् १२३३ में उज्जयिनीपर भयंकर आक्रमण करके कुछ समयके लिए मालवापर अधिकार कर लिया। किन्तु इस अल्पकालमें ही १. कल्पसूत्र भाष्य, मेरुतुंग थेरावली, समयसुन्दर कृत कालकाचार्य कथा। २. माधवाचार्यकृत शंकर-विजय, अध्याय १ और ५ । ३. जैन हितैषी, भाग १, पृ. ४८५ ।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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