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________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ १८३ तीर्थको प्राचीनता ____कारीतलाई प्राचीन कालमें एक प्रसिद्ध तीर्थ और समृद्ध नगर रहा है, ऐसे प्रमाण उपलब्ध हुए हैं। गुप्त-कालमें यहाँ मन्दिरों और मूर्तियोंका निर्माण तथा उनको प्रतिष्ठा हुई थी। त्रिपुरीके कलचुरि नरेश लक्ष्मणराज (द्वितीय) के शासन-कालमें इस क्षेत्रका पर्याप्त विकास हुआ। इस कालमें जैन, वैष्णव, शैव और बौद्ध मन्दिरों और मूर्तियोंका निर्माण यहाँ हुआ। ___ कारीतलाईके निकटवर्ती प्राचीन स्थानोंमें प्रख्यात भरहुत, शंकरगढ़, उछहरा, खो, भुभारा आदि हैं जहाँ मौर्य-कालसे लेकर परिहार और कलचुरि-काल तकके अभिलेख और मूर्तियाँ मिलती हैं। भरहुतमें मौर्यकालीन स्तूपके अवशेष मिले हैं। शंकरगढ़में भरहुत स्तूपके वेदिका-स्तम्भ और उसके अन्य अंश प्राप्त हुए हैं। उछहरा, खो और भुभारामें गुप्तकालीन ताम्र-अभिलेख प्राप्त हुए हैं जो गुप्त-संवत् १५६ से २१४ तकके हैं। इन अभिलेखोंमें राजा हस्तिन्, राजा जयनाथ, राजा सर्वनाथ और राजा संक्षोभके उल्लेख मिलते हैं। ____कारीतलाई भी इसी शृंखलाकी एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। यहाँकी कुछ गुफाओंमें ब्राह्मीलिपिमें २००० वर्ष प्राचीन अभिलेख प्राप्त हुए हैं।' सन् १८५० में एक ताम्र-अभिलेख यहाँके भग्न बराह मन्दिरके अवशेषोंमें से प्राप्त हुआ था जो संवत् १७४ का है। कनिंघमने इसे गुप्तसंवत् माना है। इसमें महाराज जयनाथके भूमि-दानका उल्लेख है। कारीतलाईके निकटस्थ भुभारा नामक एक ग्राममें एक शिलालेख उपलब्ध हुआ है जिसमें गुप्त-शैलीमें ८ पंक्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इसमें पृथक् वंशोंके हस्तिन और सर्वनाथ नामक राजाओंका उल्लेख है। सर्वनाथ महाराज जयनाथका पुत्र था। इस शिलालेखसे प्रमाणित होता है कि राजा हस्तिन् और राजा सर्वनाथ दोनों समकालीन थे। राजा हस्तिन्के गुप्तकालीन ताम्र-अभिलेख कई स्थानोंपर उपलब्ध हुए हैं। अतः कारीतलाईमें उपलब्ध ताम्र-अभिलेखका संवत् असन्दिग्ध रूपसे गुप्त-संवत् ही सिद्ध होता है। कारीतलाईमें कलचुरि-कालके भी कुछ अभिलेख प्राप्त हुए हैं। इस कालका एक अभिलेख संग्रहालयमें सुरक्षित है । इसमें युवराजदेव और लक्ष्मणराजका नामोल्लेख मिलता है । लक्ष्मणराजको चेदीन्द्र और चेदिनरेन्द्र भी कहा गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि कारीतलाई चेदिके कलचुरि-शासकोंके राज्यमें था। यहाँका एक शिलालेख रायपुर संग्रहालयमें सुरक्षित है । इस शिलालेखसे यह ज्ञात होता है कि कलचुरि-कालमें कारीतलाईको सोमस्वामिपुर भी कहा जाता था। प्राचीन कारीतलाईका वर्तमान अवशेष करनपुरा है जो एक छोटा-सा गांव है। यहाँ एक वृक्षके नीचे अम्बिका देवीकी एक सुन्दर प्रतिमा रखी हुई है। इसे गौड़ लोग 'खैरमाई के नामसे पूजते हैं। कारीतलाई और इसके निकटवर्ती स्थानोंपर अति प्राचीन कालसे जैन मन्दिरों और मूर्तियोंके अस्तित्वके प्रमाण मिलते हैं। किन्तु ज्ञात नहीं, किस शताब्दीमें ये भग्नावशेषोंके रूपमें परिवर्तित हो गये। यहाँके सहस्राधिक अवशेषोंको लोग उठाकर ले गये और कहीं किसी चबतरेके ऊपर अथवा किसी वृक्षके नीचे रखकर पूजने लगे । जैन शासन-देवियोंकी अनेक मूर्तियोंको खैरमाईके नामसे अब भी इस क्षेत्रमें पूजा जाता है। वरहटा गांवमें खैरमाईकी प्रतिमाओंके ढेरमें अनेक जैन मूतियां मिली हैं। १. बालचन्द्र जैन-कारीतलाईका कला-वैभव, 'जैन सन्देश', १९-११-१९५९। २. Report of the Archaeological Survey of India, 1973-74 &1974-75, Vol. IX.
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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