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________________ ३०२ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ . प्रातःकाल नियमानुसार पुजारी मन्दिरमें प्रक्षाल पूजाके लिए गया। इससे निवृत्त होनेपर जब वह वापस आने लगा, तब उसे रात्रिमें देखे हुए स्वप्नका स्मरण हो आया। खण्डहरोंके बीचमें स्वप्नमें देखा हुआ स्थान उसे दीख पड़ा। उसने उस स्थानसे कुछ मिट्टी हटायी ही थी कि मूर्तिका सिर दिखाई पड़ा। तब उत्साहित होकर मजदूरोंसे उस स्थानको खुदवाया। फलतः भगवान् महावीरको एक सुन्दर प्रतिमा निकली। इसके अतिरिक्त चरण चिह्न और चार अन्य तीर्थंकरोंकी मूर्तियां निकलीं। पुजारीने ये सब मूर्तियां अपनी कुटियामें रख ली और यह समाचार निकटवर्ती नगरोंमें भिजवा दिया। समाचार मिलते ही सुसारी, बड़वानी, लोनावा आदि स्थानोंसे अनेक प्रतिष्ठित सज्जन पधारे । उन्होंने आकर मूर्तियोंका प्रक्षाल और पूजन किया। चरण-चिह्न भी उत्खननमें प्राप्त हुए थे । अतः यह निश्चय किया कि चरण-चिह्न सिद्धक्षेत्रपर विराजमान होते थे, अतः यह स्थान सिद्धक्षेत्र होना चाहिए। यह सिद्धक्षेत्र पावागिरि हो सकता है, जिसका उल्लेख निर्वाण-काण्डमें किया गया है। कुछ दिनों पश्चात् अपने इस निर्णयकी पुष्टि इन्दौर आदि कई स्थानोंके विद्वानोंको ऊन बुलाकर उनसे करा ली गयी और स्थानको पावागिरि सिद्धक्षेत्र घोषित कर दिया गया। सरकार द्वारा जैन समाजको अधिकार . ऊनके निकट पावागिरि सिद्धक्षेत्रको स्थापना और उसका उद्घाटन कर दिया गया। किन्तु प्राचीन मन्दिर-मूर्तियोंपर सरकारका अधिकार था । अतः अधिकार प्राप्तिके लिए सर सेठ हुकमचन्द्रजी, इन्दौरने तत्कालीन होल्कर रियासतके महाराज श्री यशवन्तराव होल्करकी सेवामें प्रार्थना पत्र दिया और यह क्षेत्र दिगम्बर जैन समाजके अधिकारमें देनेका अनुरोध किया। काफी प्रयत्नोंके पश्चात् हुजूर श्री शंकरके आदेश नं. २९४ दिनांक २९-८-३५ के अनुसार सर सेठ साहबको अधिकार-पत्र प्राप्त हुआ, जिसके अनुसार दिगम्बर जैन समाजको यह अधिकार प्रदान किया गया कि ऊनमें नयी खोजी हुई मूर्तियोंपर उसका अधिकार रहे या, ऊनके ग्वालेश्वर मन्दिरमें इन्हें विराजमान किया जा सकता है। साथ ही, अपने व्ययसे दिगम्बर जैन समाज ग्वालेश्वर मन्दिरका जीर्णोद्धार करा सकती है। बशर्ते (१) जीर्णोद्धारका यह कार्य इन्दौर म्यूजियमके क्यूरेटरके परामर्शसे किया जाये, जिससे इस प्राचीन स्मारकका पुरातात्त्विक महत्त्व और कलावैशिष्ट्य नष्ट न हो। (२) मूर्तियां ऊनसे अन्यत्र नहीं ले जायी जायेंगी। (३) ऊनके प्राचीन स्मारकोंका स्वामित्व सरकारका होगा। ऊन नाम : एक किंवदन्ती इस स्थानका नाम ऊन क्यों पड़ा, इस सम्बन्धमें एक किंवदन्ती बहुप्रचलित है। जिसका उल्लेख 'दी इन्दौर स्टेट गजेटियर' जि. १ पृ. ६६७ पर इस प्रकार किया गया है____ ऊनके राजा बल्लालके पेटमें एक सर्पिणी चली गयी। धीरे-धीरे वह वहां बड़ी हो गयी। इसके कारण राजाको असह्य वेदना होती थी। उसने अनेक उपचार कराये किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। तब जीवनसे निराश होकर वह गंगामें डूबनेके लिए बनारसको चल दिया। उसकी रानी उसके साथ थी। रातमें राजाके सो जानेपर सर्पिणी बाहर निकल आती थी। एक रात एक सांप आया और उस सर्पिणीसे वार्तालाप करने लगा। सांपने नागिनसे कहा-"अगर राजाको यह ज्ञात हो जाये कि पानीमें बझाया हआ चना खा लेनेसे तेरा अन्त हो सकता है तो तेरा जीना ही असम्भव हो जाये।" नागिन बोली-"अगर राजाको यह पता चल जाये कि तेरे बिलमें गरम
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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