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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
३०३ तेल डालनेसे तू मर सकता है तो उसे वह अपार धन मिल जायेगा, जिसकी रक्षा तू बराबर करता रहता है।"
रानीने नाग-नागिनका यह वार्तालाप सुन लिया और प्रातःकाल होनेपर राजाको कह सुनाया। राजाने वैसा ही किया। कुछ चूना खा लिया जिससे पेटकी नागिन मर गयी और उसकी पीड़ा दूर हो गयी। फिर उस सर्पके बिलका पता लगाकर उसने गर्म तेल डाल दिया। जिससे सांप मर गया और राजाको विपुल धन-राशिकी प्राप्ति हुई। धन पाकर उसने १०० मन्दिरों, १०० सरोवरों और १०० कुओंके निर्माण की प्रतिज्ञा की। किन्तु कुएं, सरोवर और मन्दिर प्रत्येक ९९ ही बन पाये । प्रत्येकमें एककी कमी ( ऊन ) रहनेसे इस स्थानका नाम ही 'ऊन' पड़ गया। कनका ऐतिहासिक महत्त्व
ऊनका शासक बल्लाल कौन था और किस वंशसे सम्बन्धित था, इस विषयमें इतिहासकारोंमें कई मत पाये जाते हैं। एक मत है कि ऊनमें मन्दिरोंका निर्माता होयसलवंशी बल्लाल द्वितीय था। यह नरसिंह देव प्रथमका पुत्र था। इसका शासन-काल सन् ११७३ से १२२० तक था। होयसल वंशमें विनयादित्यका पुत्र एरेयंग हुआ था, जो चालुक्य राजाका सामन्त था तथा जिसने मालवराजकी राजधानी धारानगरीपर आक्रमण करके उसका विध्वंस किया था। इस घटनासे यह अनुमान लगाना स्वाभाविक है कि एरेयंगकी चौथी पीढ़ीमें होनेवाला बल्लाल द्वितीय मालवाका शासक रहा होगा। वही बल्लाल वाराणसी भी गंगामें प्राण विसर्जनके लिए जाता हुआ जब इस स्थान (ऊन ) पर ठहरा होगा, जिसका संकेत किंवदन्तीमें है तब इस होयसलवंशी बल्लाल द्वितीयने ऊनमें मन्दिरोंका निर्माण कराया होगा।
- दूसरा मत 'पज्जुण्णचरियं (प्रद्युम्नचरितं ) की प्रशस्तिमें प्रतिपादित है। इस ग्रन्थके कर्ता सिद्ध और सिंह कवि हैं। इसका रचना काल अनुमानतः बारहवीं शताब्दीका मध्य काल है। इसमें बताया है कि ब्रम्हणवाड़ नामक नगरमें अनेक मठ, मन्दिर और जिनालय थे। वहांका शासक रणघोरीका पुत्र बल्लाल था। अर्णोराजका क्षय करनेके लिए वह कालस्वरूप था। उसका भृत्य गुहिलवंशीय भुल्लण था।
अर्णोराज सपादलक्ष ( सांभर ) का राजा था। उक्त प्रशस्तिमें रणघोरीके पुत्र बल्लालको अर्णोराजका क्षय करनेके लिए कालस्वरूप बताया है। किन्तु अन्य साक्ष्योंसे यह सिद्ध होता है कि अर्णोराजका संहार चौलुक्यवंशी कुमारपालने किया था। इससे लगता है कि बल्लालने किसी युद्धमें अर्णोराजको पराजित किया होगा किन्तु बादमें उन दोनोंकी मित्रता हो गयी होगी और बादमें उन दोनोंको कुमारपालने पराजित किया। ___इस प्रशस्तिसे यह स्पष्ट ज्ञात नहीं होता कि रणघोरीका पुत्र बल्लाल क्या मालवराज बल्लाल था अथवा निमाड़का कोई राजा था। किन्तु विचार करनेपर यह बल्लाल मालवराज प्रतीत होता है। कुमारपालने जिस बल्लालको युद्ध में मरवाया था, वह वही बल्लाल था, जिसने ऊनमें ९९ मन्दिरोंका निर्माण कराया था और जो मालवाका स्वामी था।
आचार्य सोमप्रभने 'कुमारपाल-प्रबोध' नामक ग्रन्थ ९००० श्लोक परिमाण लिखा था। इस ग्रन्थकी रचना संवत् १२४१ में की गयी अर्थात् सोमप्रभाचार्य महाराज कुमारपालके समकालीन थे और उन्होंने महाराजको उपदेश भी दिया था। इसलिए इनकी रचनामें ऐतिह्य सामग्री विशेष प्रामाणिक हो सकती है ऐसा विश्वास किया जाता है। इन्हींकी रचनाको आधार बताकर सोभतिलक सूरिने विक्रमको चौदहवीं शताब्दीके अन्तिम चरणमें 'कुमारपालचरित' की रचना की थी।