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________________ ७८ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ जो काट दी गयी हैं। महुआ पचराईसे ५ कि. मी. है। यहाँ खण्डित जैन मूर्तियां मिलती हैं। इन्दौर खनियाधानासे ३२ कि. मी. है। यहाँ मन्दिरोंके भग्नावशेष बहुत दूर तक बिखरे पड़े हैं। उनसे लगता है कि प्राचीन कालमें यहाँ अनेक जैन मन्दिर रहे होंगे। आसपासके गाँवोंके बहुत-से घरोंमें दीवारोंमें जैन मूर्तियाँ चिनी हुई हैं। यह भी सुनने में आया कि लगभग ३०-३५ वर्ष पहले यहाँसे कुछ लोग १२ लारियोंमें मूर्तियाँ भरकर ले गये थे। इसमें कहाँ तक सत्यांश है, यह नहीं कहा जा सकता । इन्दौर एक छोटा-सा ग्राम है। . ___ सकर्रा इन्दौरसे ३ कि. मी. है। यहाँ ३ जैन मन्दिरोंके भग्नावशेष पड़े हुए हैं तथा ४ जैन प्रतिमाएं भी हैं। खुले मैदानमें एक मानस्तम्भ अब तक सुरक्षित दशामें खड़ा है। लखारी गांव खनियाधानासे २९ कि. मी. दूर है। यहाँ कई मन्दिरोंके अवशेष बिखरे पड़े हैं तथा २५ जैन मूर्तियाँ इधर-उधर पड़ी हुई हैं। सिमलार खनियाधानासे लगभग २२ कि. मी. है और लखारीके मार्गमें पड़ता है । सन् १९६० में यहाँ एक किसानको हल चलाते समय भगवान् पार्श्वनाथकी सवा फुट ऊँची एक प्रतिमा मिली थी। जैनोंको जब ज्ञात हुआ तो वे आकर उसे विनयपूर्वक ले गये और खनियाधाना क्षेत्रपर विराजमान कर दिया जो अब भी वहाँ विद्यमान है। प्रतिमा सांगोपांग और अत्यन्त मनोज्ञ है। बजरंगढ़ अवस्थिति श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय-क्षेत्र बजरंगढ़ गुना मण्डलके मुख्यालय गुनासे ७ कि. मी. दक्षिण दिशाकी ओर है। यह क्षेत्र तो समतल भूमिपर अवस्थित है किन्तु चारों ओरकी पर्वतमालाओंके कारण यहाँका प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त मनोहर और नयनाभिराम हो गया है । यहाँका सबसे बड़ा अतिशय यहाँपर विराजमान भगवान् शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथकी कायोत्सर्ग मुद्रामें अवस्थित भव्य प्रतिमाएं हैं। इनकी प्रतिष्ठा जिनेन्द्रभक्त पाड़ाशाह द्वारा संवत् १२३६ में की गयी थी। इन प्रतिमाओंका अनिन्द्य कला-सौष्ठव, भावाभिव्यंजना और शिल्पविधान अनुपम है। इनके दर्शन करते ही मनमें आह्लाद, भक्ति और अध्यात्मकी पावन मन्दाकिनी प्रवाहित होने लगती है। भगवान् शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथ तीनों ही चक्रवर्ती थे तथा मनुष्यको उपलभ्य सम्पूर्ण सम्पदाके स्वामी थे। तीनों ही कामदेव थे, उन्हें अनिन्द्य रूपछटा उपलब्ध थी। उनके अन्तःपुरमें ९६००० स्त्रियाँ थीं, मानो संसार-भरका समवेत रूप-सौन्दर्य वहीं एक स्थानपर आ जुटा हो। इस प्रकार उन्हें अनुपम रूप, भोगकी सामग्री और भोगकी शक्ति सब-कुछ प्राप्त थी। किन्तु संसारके इन भोगोंको क्षणिक जानकर उन्होंने संसारसे विराग ले लिया और आत्मकल्याणकी राहपर चल पड़े। उन्होंने निष्ठा, संकल्प और साधनाके द्वारा अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया और वे शुद्ध बुद्ध सच्चिदानन्द परमात्मा बन गये। इन तीनों विशाल प्रतिमाओंकी भावाभिव्यक्ति इन्हीं भावोंको लेकर हुई है। प्रतिमाओंकी मुखमुद्रा सौम्य और शान्त है। साथ ही उनके ऊपर विरागकी छवि स्पष्ट अंकित है। उनके मुखपर कामदेवकी रूप-माधुरी है। उनके शरीरमें लोकविजेताकी शक्ति है। इसी शक्तिसे उन्होंने कामदेवको भी विजित कर लिया था। इन्हीं भावोंका अंकन इन प्रतिमाओंपर हार है।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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