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________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ ७९ प्रतिष्ठाकारक पाड़ाशाह इन प्रतिमाओं के प्रतिष्ठाकारक श्री पाड़ाशाहके जीवनपर इतिहास- ग्रन्थों अथवा मूर्तिलेखोंसे विशेष कुछ प्रकाश नहीं पड़ता है। किंवदन्तियोंसे इतना ही ज्ञात होता है कि श्री पाड़ाशाह गहोई नामक वैश्य जातिके रत्न थे । वे चन्देरी परगने के थूबोन गाँवके रहनेवाले थे । जैन धर्म में उनकी अगाध आस्था थी । वे एक कुशल व्यापारी थे । अतः उनके ऊपर लक्ष्मीकी भी कृपा थी । इस मन्दिर और प्रतिमाओंके सम्बन्ध में एक किंवदन्ती बहुप्रचलित है कि पाड़ाशाह पाड़ों (भैंसों ) पर माल लादकर बनिज किया करते थे । सम्भवतः इसी कारण उनका नाम पाड़ाशाह पड़ गया । एक बार वे बजरंगढ़की ओर जा रहे थे । पठारपर उनका एक पाड़ा गुम हो गया। इससे श्री पाड़ाशाह बड़े परेशान हुए। वे पाड़ेकी खोज करते-करते पठारपर जा रहे थे, तभी उन्हें एक पारस पथरी मिली। पारस पथरी पाकर उनके मनमें धर्मं-भावना प्रबल हो उठी । उन्होंने मन्दिर और मूर्तियाँ निर्मित करके उनकी प्रतिष्ठा करनेका संकल्प किया और सबसे प्रथम बजरंगढ़में ही पाड़ाडीह नामक स्थानसे लगभग २ कि. मी. दक्षिणमें भगवान् शान्तिनाथके भव्य जिनालयका निर्माण कराया और उसमें इन तीनों तीर्थंकरोंकी विशाल प्रतिमाएँ फाल्गुन सुदी ६ विक्रम संवत् १२३६ को प्रतिष्ठित करायीं । पाड़ाशाह द्वारा निर्मित मन्दिर और मूर्तियाँ अन्य कई स्थानों पर भी हैं । उन्होंने जो भी मूर्तियाँ प्रतिष्ठित करायी हैं, वे प्रायः विशाल अवगाहनावाली हैं । उनके बनवाये हुए जिनालयोंकी ठीक संख्या तो ज्ञात नहीं है, किन्तु निम्नलिखित स्थानोंपर उनके द्वारा निर्मित जिनालय अब भी विद्यमान हैं - अहारजी, खानपुर, झालरापाटन, थूबोन, भियादाँत, बर्री, भामोन, सतना, सुम्मेका पहाड़, पचराई, सेरोनजी । प्रायः उन्होंने शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथ तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करायीं। उनमें सर्वत्र मूलनायक भगवान् शान्तिनाथकी प्रतिमाको ही रखा। कहीं-कहीं तो उन्होंने अकेले शान्तिनाथ भगवान् की प्रतिमा ही प्रतिष्ठित करायी । इससे ऐसा लगता है कि धर्मवत्सल पाड़ाशाहको यद्यपि सभी तीर्थंकरों के प्रति अगाध श्रद्धा थी, किन्तु शान्तिनाथ भगवान् के प्रति उनका विशेष आकर्षण था । सम्भवतः शान्तिनाथ भगवान् के दर्शन, पूजन और नाम स्मरणसे उन्हें अपेक्षाकृत अधिक शान्ति प्राप्त होती थी । इन तीन तीर्थंकरोंकी जितनी भी प्रतिमाएँ उन्होंने प्रतिष्ठित करायीं, वे सभी हलके लाल पाषाण अथवा कत्थई वर्णकी हैं । किन्तु माणिक्यकी बनी हुई सत्रह इंच ऊँची पद्मप्रभु तीर्थंकरकी प्रतिमा भी उनके द्वारा प्रतिष्ठित हुई मिलती है जो बूढ़ी चन्देरीके जंगलमें बहनेवाली नदीके किनारे बीठलीके जैन मन्दिरमें अब तक विराजमान है । क्षेत्र-दर्शन गुनासे आरोन जानेवाली सड़क के किनारे श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बजरंगढ़ स्थित है । मन्दिरके सामने मैदान है जो चहारदीवारीसे घिरा हुआ है । मैदानमें १५ फुट ऊँची चौकीपर मन्दिरका पूर्वाभिमुखी प्रवेशद्वार है । द्वारपर भव्य छतरी बनी हुई है । प्रवेशद्वारपर ही क्षेत्रका कार्यालय बना हुआ है । द्वार में प्रवेश करनेपर सामने ही एक चबूतरेपर वेदी बनी हुई है । उसके बिलकुल पीछे मुख्य गर्भगृह है जिसमें मूलनायक शान्तिनाथ विराजमान हैं। गर्भगृह साधारण है । उसमें १० सीढ़ियाँ उतरकर जाना पड़ता है । सामने दीवार के सहारे भगवान् शान्तिनाथकी मूलनायक विशालकाय प्रतिमा कायोत्सर्गासन में विराजमान है। मूर्तिको अवगाहना १४ फुट ६ इंच है तथा पीठासनसहित इसका आकार १८ फुट है। इसके दायीं और बायीं ओर क्रमशः
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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