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________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ २०३ किसी स्थानकी खुदाई करते समय जैन मूर्तियां मिल जाती हैं। यहाँसे उपलब्ध दो तीर्थंकर प्रतिमाएं नागपुर तथा कलकत्ताके संग्रहालयोंमें भेजी जा चुकी हैं। वर्तमानमें लखनादौनकी भगवान् महावीर २५ सौवाँ निर्माण-महोत्सव समितिने तीन सौसे ज्यादा जैन अवशेष लखनादौन तहसीलमें खोजे हैं जो कि पुरातत्त्वको दृष्टिसे महत्त्वके हैं। ये अवशेष ग्रामीणों द्वारा अजैन देवीदेवताओंके रूपमें पूजे जाते हैं और कुछ बुद्धिजीवियोंके बैठकखानोंकी शोभा बढ़ाते हैं। प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता स्वर्गीय रायबहादुर डॉ. हीरालालजीने अपनी पुस्तक 'इन्स्क्रिप्शन्स इन सी. पी. एण्ड बरार' के पृष्ठ ६९ पर लखनादौनसे प्राप्त एक अभिलिखित द्वार-शिलाखण्डकी सूचना दी है तथा उक्त अभिलेखका विश्लेषण करते हुए उन्होंने यह मत व्यक्त किया है कि इस क्षेत्रमें जैन मन्दिर अवश्य रहा है और यह द्वार-शिलाखण्ड उसी जैन मन्दिरका होगा। उन्होंने लेखके आधारपर मन्दिर-निर्माताको अमृतसेनका प्रशिष्य तथा त्रिविक्रमसेनका शिष्य बताया है। निर्माताका नाम विक्रमसेन बताया गया है। लिपिके आधारपर उन्होंने उक्त अभिलेखको ९वीं१०वीं शताब्दीका प्रमाणित किया है। स्व. डॉ. हीरालालजीके इस उल्लेखसे यह प्रमाणित होता है कि लखनादौन नगरके उस क्षेत्रमें जहां यह द्वार-शिलाखण्ड उपलब्ध हुआ है, ८वीं और १०वीं शताब्दियोंके बीच अर्थात् कलचुरि-कालमें कोई भव्य जैन मन्दिर अवश्य रहा है जिसके इर्दगिर्द आज तक ये अवशेष मिल ___इन सम्भावनाओंकी पुष्टि जुलाई सन् १९७१ में यहाँसे उपलब्ध एक तीर्थंकर-प्रतिमासे होती है । यह प्रतिमा मूल काछी-परिवारके श्री शारदाप्रसाद हरदियाको खेत जोतते हुए मिली थी। यह प्रतिमा ४ फुट ऊंचे और २। फुट चौड़े एक शिलाफलकपर अत्यन्त कलात्मक ढंगसे उत्कीर्ण है । जैन समाजने इसे लाकर स्थानीय जैन मन्दिरमें विराजमान कर दिया है और मार्च १९७४ में इसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न हो चुकी है। यह अष्टप्रातिहार्य-युक्त षट्-समकोणीय प्रतिमा है जो कि मूर्तिकलाको दुर्लभ कृति मानी जाती है। इस प्रतिमाका अंकन अत्यन्त सजीव और भव्य है। इसका शिल्प सौष्ठव प्रभावक है। इसकी भावाभिव्यंजना, अंगविन्यास और कला अत्यन्त मनोहर है। यह प्रतिमा मूर्ति-शिल्पको दृष्टिसे सुन्दरतम प्रतिमाओंमें से एक है, यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है। ____ भगवान् चार खम्भोंपर निर्मित सिंहपीठिकापर पद्मासन मुद्रामें ध्यानावस्थित हैं। अ?न्मीलित प्रशान्त नयन, सिरपर घुघराला केशगुल्म और सिरके पृष्ठभागमें अलंकृत प्रभामण्डल है। भगवान्के दोनों पाश्ॉमें चमरेन्द्र चमर लिये भगवान्की सेवामें खड़े हैं। सिरके ऊपर त्रिछत्र प्रदर्शित है । त्रिछत्रके दोनों ओर गजारूढ़ इन्द्र-दम्पती अंकित हैं। गजराजके ऊपरी भागमें दोनों गन्धर्व पुष्पवर्षा करते हुए दीख पड़ते हैं। पीठिकाके सिंहोंसे सटे खड़े दोनों ओर यक्ष मातंग एवं सिद्धायनी यक्षी हैं। मध्यमें धर्मचक्रका अंकन है । ___ स्व. डॉ. हीरालालजीने मूर्ति, यक्ष-यक्षी, प्रभामण्डल, अलंकरण तथा शाल-वृक्षके पत्तों एवं फूल ( जो कि प्रभामण्डलपर स्पष्ट दिखाई देते हैं ) को आधार मानकर इसे भगवान् महावीरकी प्रतिमा माना है । अन्य कई विद्वानोंने भी इस मतकी पुष्टि की है। विद्वानोंका एक वर्ग लखनादौनको पुलकेशी द्वितीयके समयका मानता है जिसका कि राज्य नर्मदाके ५० कोस दक्षिणमें था। आधुनिक कुछ विद्वान् इसको लक्ष्मणद्रोण नामक महाभारतयुगीन ग्राम मानते हैं।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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