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________________ २०४ भारतके दिगम्बर जैन तो मढ़िया अवस्थिति और मार्ग जबलपुर नगरकी गणना मध्यप्रदेशके प्रमुख नगरोंमें की जाती है। यह औद्योगिक, राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक सभी दृष्टियोंसे महाकोशलका सबसे बड़ा नगर है । जैन समाजका तो यह केन्द्र ही है। यहाँ जेनोंके लगभग दो हजार घर हैं तथा ३६ दिगम्बर जैन मन्दिर और ३ चैत्यालय हैं। जबलपुर नगरसे ६ कि. मी. दूर जबलपुर-नागपुर रोडपर दक्षिण-पश्चिमकी ओर पुरवा और त्रिपुरीके बीचमें एक छोटी-सी पहाड़ी है। यह धरातलसे ३०० फुट ऊंची है। 'पिसनहारीकी मढ़िया' अथवा मढ़िया इसी पहाड़ीपर है। पहाड़ीपर जानेके लिए २६५ सीढ़ियां बनी हुई हैं। इसके पास ही मेडिकल कालेज बना हुआ है। जबलपुर शहरसे यहां आनेके लिए बसों और टेम्पुओंकी सुविधा है। यहाँका पता इस भांति है-पिसनहारी मढ़िया ट्रस्ट, नागपुर रोड, जबलपुर। क्षेत्रका इतिहास यह स्थान लगभग ५०० वर्षसे प्रकाशमें आया है। यद्यपि इसके आसपास चारों ओर प्राचीन कला-सामग्री बिखरी पड़ी है, किन्तु मढ़ियामें इससे पूर्वका कोई पुरातत्त्व नहीं मिलता। इस क्षेत्रके नाम और निर्माणके सम्बन्धमें अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं । एक किंवदन्ती यह है ५०० वर्ष पूर्व इस भूभागपर गोंड राजाओंका राज्य था। राजदरबारमें एक जैनधर्मावलम्बी पेशवा था। उसने जिनेन्द्र भगवान्के नित्य दर्शनके लिए इस एकान्त पहाडीपर जैन मन्दिरका निर्माण कराया। इसके कारण कुछ समय तक यह 'पेशवाकी मढ़िया' नामसे प्रसिद्ध रहा। धीरे-धीरे यह नाम बदल कर 'पिसनहारीकी मढ़िया' हो गया। किन्तु यह किंवदन्ती कुछ अधिक विश्वसनीय नहीं लगती। यह तो सम्भव है कि किसी जैन पेशवाने यहाँ मन्दिर-निर्माण कराया हो और उसके कारण इस स्थानका नाम 'पेशवाकी मढ़िया' पड़ गया हो । किन्तु 'पेशवाकी मढ़िया' ही बदलते-बदलते 'पिसनहारीकी मढ़िया' कहलाने लगी हो, यह बुद्धिगम्य नहीं है। - इस सम्बन्धमें एक दूसरी भी किंवदन्ती प्रचलित है, जो अधिक प्रामाणिक लगती है तथा जो अधिक जनविश्रुत भी है। कहते हैं, जबलपुर नगरके मध्यमें कमानिया द्वार (त्रिपुरीस्मारक द्वार ) के निकट एक निर्धन पिसनहारी विधवा रहती थी। वह आटा पीसकर अपना निर्वाह करती थी। एक दिन उसने जैन मुनिका उपदेश सुना। उपदेश सुनकर उसने तभी मनमें एक जैन मन्दिरका निर्माण करानेका संकल्प कर लिया। किन्तु समस्या थी धनकी। जिसने जीवनमें दूसरोंके समक्ष कभी हाथ नहीं पसारा, जो अपने श्रमपर ही निर्भर रहकर अपना जीवन-यापन करती थी, वह मन्दिरके लिए दूसरोंसे भिक्षा कैसे मांगती। उसका संकल्प अखण्ड था। उसने निश्चय कर लिया कि श्रम द्वारा धन-संग्रह करके मन्दिर निर्माण कराना है, और मन्दिर अवश्य बनेगा चाहे इसके लिए कितना ही श्रम क्यों न करना पड़े। बस, इस संकल्पका सम्बल लेकर वह श्रम करने में जुट गयी। वह घर-घर जाती और वहाँसे अन्न लाकर पीसती। सबसे शाम तक उसकी चक्की कभी विराम न लेती। चक्कीकी मधुर ध्वनिमें उसका अडिग संकल्प गानोंके रूपमें गूंजता। वृद्ध शरीर और अथक परिश्रम । किन्तु
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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