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________________ २०२ - भारतके दिगम्बरजैन तीर्य कर दिया। इससे कृष्णको स्त्रीरत्न तो मिला ही, साथ ही उन्हें तत्कालीन जटिल और जरासन्धके आतंकसे व्याप्त राजनीतिपर अपना वर्चस्व स्थापित करनेका एक स्वर्ण अवसर भी प्राप्त हुआ। यह घटना विदर्भमें घटित हुई थी। यहां विचारणीय यह है कि रुक्मिणीका जन्म-नगर विदर्भमें था। शिशुपाल चेदिका शासक था। चेदि ही प्राचीन कालमें दहल-मण्डल या बुन्देलखण्ड कहलाती थी। शिशुपालके समय चेदिकी राजधानी चन्देरी थी। गुप्त-कालमें चेदिकी राजधानी कालिंजर था। महाभारतकालमें शुक्तिमती राजधानी थी और कलचुरि-कालमें इसकी राजधानी माहिष्मती थी। कुछ कालतक दहलमण्डलकी राजधानी त्रिपुरी ( जबलपुरसे ११ कि. मी. दूर वर्तमान तेवर ) भी रही। कुण्डलपुर चेदि या दहलमण्डलके ही अन्तर्गत था। शिशुपालके समय कुण्डलपुर उसके राज्यमें सम्मिलित था। भीष्म विदर्भके प्रभावशाली नरेश थे। चेदि और विदर्भ दोनों पृथक्पृथक् राज्य थे। अतः यह तर्कसंगत तथ्य है कि कुण्डलपुरके साथ रुक्मिणीका कोई सम्बन्ध नहीं था। रुक्मिणी मठ नामक जैन मन्दिरके साथ रुक्मिणीका नाम कैसे जुड़ गया, यह शोधका एक पृथक् विषय हो सकता है। सम्भव है, इस मन्दिरका निर्माण एवं प्रतिष्ठा रुक्मिणी नामक किसी उदार महिलाने करायी हो। जो भी हो, इतना तो सुनिश्चित है कि कृष्णकी महारानी रुक्मिणीका कोई सम्बन्ध इस कुण्डलपुरके साथ नहीं रहा। . वर्तमानमें रुक्मिणी मठ कुछ स्तम्भोंपर आधारित भग्न दशामें खड़ा है। यह पाषाणका मण्डप-जैसा प्रतीत होता है । इसके चारों ओर भग्नावशेष विशाल भूभागमें बिखरे पड़े हैं। लखनादौन मार्ग ___यह स्थान मध्यप्रदेशके जबलपुर-नागपुर रोडपर जबलपुरसे ८३ किलोमीटर है और राष्ट्रीय मार्ग नं. २६ एवं नं. ७ के संगमपर स्थित है। भविष्यमें यहाँसे भोपाल-रायपुर राष्ट्रीय मार्ग तथा लखनादौन-गोंदिया राष्ट्रीय मार्ग बननेवाला है। इन्हीं राष्ट्रीय मार्गोके चौराहेपर महावीर कीर्तिस्तम्भ निर्मित है । यह सिवनी जिलेकी एकमात्र तहसीलका मुख्यालय है। पुरातत्त्व-सामग्री ___ लखनादौन नगर तथा इसके आसपास २०-२५ मीलके वृत्तमें प्राचीन भवनोंके भग्नावशेष बिखरे हुए पड़े हैं। नगरके अनेक मकानोंमें प्राचीन मूर्तियां जड़ी हुई हैं। अनेक मकान ऐसे भी मिलेंगे, जिनके निर्माणमें प्राचीन भवनोंके स्तम्भों, अलंकृत पाषाणों एवं पुरातात्त्विक महत्त्वकी सामग्रीका स्वतन्त्रतापूर्वक उपयोग किया गया है। यहाँ अब भी कभी-कभी खेत जोतते समय या १. स्कन्द पुराण, रेवा खण्ड, पर्व ५६ । २. Journal of the Asiatic Society of Bengal, Vols. xV and LXXI. ३. Epigraphia Indica, Vol. I, pp. 220-253. Alberuni's India, Vol. I, P. 202..
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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