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________________ २०१ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ वर्शनीय स्थल - क्षेत्रके निकट प्राचीन स्थानोंमें एक रुक्मिणी मठ है। यह वस्तुतः प्राचीन कालमें जैन मन्दिर था। इसमें जैन मूर्तियां थीं। ये प्रतिमाएं सुरक्षाकी दृष्टिसे बड़े बाबाके मन्दिरमें पहुंचा दी गयी हैं । कनिंघमने इस मन्दिरके भग्नावशेषोंमें ४ फुट ऊंचा और २ फुट चौड़ा एक पाषाण देखा था जिसपर किसी शासन-देवता, सम्भवतः धरणेन्द्र-पद्मावतीकी मूर्ति थी। यह मूर्ति एक चैत्य वृक्षके नीचे दिखाई पड़ती थी और चैत्य वृक्षके ऊपर भगवान् पार्श्वनाथकी प्रतिमा बनी हुई थी। वह प्रतिमा आज भी वहां पड़ी है। कहते हैं, रुक्मिणी मठकी बहुत-सी प्राचीन सामग्री कुण्डलपुर और वरंटके बीच एक पुलियामें कूटकर लगायी गयी थी। . नाम-साम्यके कारण कुछ लोग रुक्मिणी मठ और वर्रटका सम्बन्ध कृष्णकी पटरानी रुक्मिणीसे जोड़ते हैं। उनका विचार है कि यही वह कुण्डलपुर है जहाँ कृष्णने रुक्मिणीका हरण किया था तथा वरंट कृष्णकालीन विराट है। किन्तु किसी भी साक्ष्यसे कुण्डलपुर रुक्मिणीका जन्म-नगर सिद्ध नहीं होता। वस्तुतः रुक्मिणीके जन्म-नगरका नाम कुण्डिनपुर था। वह विदर्भमें था। इसका अपर नाम विदर्भपुर था। वर्तमानमें कुण्डिनपुरकी पहचान देवलवाड़ासे की जाती है जो महाराष्ट्रके चांदा जिलेमें वर्धा नदीके किनारेपर है और नरौरासे ११ मील है। यहाँ रुक्मिणी मन्दिर बना हुआ है और प्रतिवर्ष वहाँ मेला भरता है। प्राचीन कालमें कुण्डिनपुरका विस्तार वर्धा नदीसे अमरावती तक था। कहते हैं, अमरावतीमें भवानीका मन्दिर अब भी बना हुआ है जहाँसे कृष्णके द्वारा रुक्मिणीका हरण होना बताया जाता है। डॉ. फ्यूरर विदर्भके कोण्डाविरको प्राचीन कुण्डिनपुर मानते हैं। डॉर्सेन इसकी पहचान अमरावतीसे ४० मील दूर अवस्थित कुण्डपुरसे करते हैं। जैन और हिन्दू पुराण भी रुक्मिणीके जन्म-नगरका नाम कुण्डनपुर या कुण्डिनपुर मानते हैं और उसे विदर्भमें अवस्थित मानते हैं। जैन और हिन्दू पुराणोंके अनुसार रुक्मिणीके भाई और विदर्भके राजकुमार रुक्मने गिरिव्रजके सम्राट् जरासन्धकी प्रेरणासे अपनी बहनका सम्बन्ध चेदि-नरेशके साथ कर दिया था। रुक्मके पिता भीष्मको भी अपने पुत्रके निर्णयसे सहमत होना पड़ा। इस विवाह-सम्बन्धने राजनैतिक रूप ले लिया। शिशुपाल और भीष्म, जरासन्धके करदया माण्डलिक नरेश थे। दूसरी ओर नारद कृष्णके पक्षधर थे जो तोड़-जोड़की नीतिमें निष्णात थे। कृष्ण जरासन्धके प्रतिद्वन्द्वो थे। नारदने भीष्मके महलोंमें जाकर पहले रुक्मिणीको बुआको कृष्णके पक्षमें किया, फिर कृष्णका चित्रांकन करके उसे रुक्मिणीको दिखाया और वार्तालापकी अपनी अनुपम कला द्वारा रुक्मिणीके मानस-मन्दिरमें कृष्णका मोहन रूप प्रियतमके रूपमें विराजमान कर दिया। रुक्मिणीने अपनी बुआके परामर्श और सहयोगसे कृष्णके नाम प्रेम-पत्र भेजा और उन्हें उसी दिन आनेका अनुरोध किया जिस दिन उसका विवाह शिशपालके साथ होनेवाला था। यथासमय कृष्ण संकेतस्थान (जैन पुराणोंके अनुसार मदन-मन्दिर और हिन्दू पुराणोंके अनुसार इन्द्राणी-मन्दिर ) में आकर छिप गये। रुक्मिणी भी अपने वचनानुसार वहाँ आयी। वहींसे कृष्ण रुक्मिणीको रथमें लेकर चल दिये। कन्या पक्षने प्रतिरोध भी किया, किन्तु कृष्णने उसके सारे विरोध-प्रतिरोधोंको निष्प्रभ १. हरिवंश पुराण २, महाभारत वन पर्व ७३ २. Report of the Archaeological Survey of India, Vol. IX, P. 133. ३. Monumental Antiquities and Inscriptions, by Dr. Fuhrer. ४. Dowson's Classical Dictionary, 4th Ed., p. 171. ३-२६
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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