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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ जो विद्वान् इस निर्वाण-क्षेत्रका नाम श्रमणगिरि मानते हैं, वे वर्तमान सोनागिरिको निर्वाणक्षेत्र माननेके विरुद्ध हैं । उनका तर्क इस प्रकार है
संस्कृत निर्वाण भक्तिके नौवें पद्यमें 'ऋष्यद्रिके' पाठ आया है। निर्वाण भक्तिकी टोका करते हुए श्री प्रभाचन्द्रने 'ऋष्यद्रिके' का अर्थ 'श्रमणगिरौ' किया है अर्थात् ऋषिगिरि ही श्रमणगिरि कहलाता था। निर्वाण भक्तिके उक्त श्लोकमें 'वैभार, विपुल और नलाहकके बीचमें' ऋषिगिरिका नाम आया है, अतः ऋषिगिरि राजगृहके पर्वतसे भिन्न नहीं हो सकता। राजगृह नगरके निकट पाँच पहाड़ हैं-वैभार, विपुल, उदय, रत्न और श्रमणगिरि ( ऋषिगिरि )। - कुछ विद्वानोंने हिन्दी, मराठी, गुजराती आदि भाषाओंमें तीर्थवन्दना' और जयमालाओंकी रचना को है। लगता है, इन कवियोंमें भी 'श्रमणगिरि' और 'सुवर्णगिरि के बारेमें मतभेद रहे हैं । गुणकीर्ति (१५वीं शताब्दी ) और चिमणा पण्डित (१७वीं शताब्दी ) ने मराठी भाषामें 'तीर्थवन्दना'की रचना की है तथा मेघराज (१६वीं शताब्दी ) ने गुजराती भाषामें 'तीर्थवन्दना' लिखी है। इन तीनों ही विद्वानोंने शवणागिरि, सिवनागिरि और सिवणागिरि शब्दोंका प्रयोग किया है, जिसका अर्थ होता है श्रमणगिरि। दूसरी ओर भट्टारक विश्वभूषण ( १७वीं शताब्दी) ने हिन्दी-संस्कृत मिश्रित 'सर्व त्रैलोक्य जिनालय जयमाला' बनायी है तथा पं. दिलसुख ( १९वीं शताब्दी ) ने हिन्दी-संस्कृत मिश्रित 'अकृत्रिम चैत्यालय नभमाला' की रचना की है। इन दोनोंने ही 'सोनागिरि' शब्दका प्रयोग किया है।
यद्यपि सुवण्णगिरि, सवणागिरि, शवणागिरि, सिवणागिरि, सुवर्णगिरि और सोनागिरि आदि शब्द भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं तथा इन शब्दोंका प्रयोग करनेवाले लेखकोंमें इन शब्दोंको लेकर मतभेद प्रतीत होता है, किन्तु इन शब्दोंकी गहराईसे. छानबीन करें तो कोई मतभेद प्रतीत नहीं होता। सुवर्णगिरिपर असंख्य श्रमण तपस्या करते थे, इसलिए सुवर्णगिरिको श्रमणगिरि भी कहा जाता था। ऋषिगिरिको भी श्रमणगिरि इसी अर्थमें कहा जाता था क्योंकि श्रमण साधु वहाँ तपस्या करते थे। वस्तुतः इन दोनों पर्वतोंका नाम श्रमणगिरि नहीं था, बल्कि इनका नाम तो सुवर्णगिरि और ऋषिगिरि ही था। नंग-अनंगकुमार आदि मुनि का समवसरण सुवर्णगिरिपर आया था। चन्द्रप्रभ भगवान्के चरित-ग्रन्थोंसे इसका समर्थन होता है। परम्परासे भी वर्तमान सोनागिरिको ही नंगानंगकुमार मुनियोंकी निर्वाण-भूमि होनेकी मान्यता चली आ रही है । अतः सोनागिरिको निर्वाण-भूमि माननेमें कोई बाधा नहीं है।
कुछ विद्वान् सोनागिरिके विरोधमें यह शंका प्रस्तुत करते हैं कि 'गोपाचल ( ग्वालियर ) में भट्टारक-पीठकी स्थापनाके पश्चात् सोनागिरिमें उसकी शाखा-पीठ स्थापित की गयी, अतः सोनागिरि गोपाचलकी शाखा-पीठके बाद तीर्थके रूपमें मान्य हआ। हमारी विनम्र मान्यता है कि सोनागिरिको एक निर्वाण-क्षेत्रके रूप में उस समय भी मान्यता प्राप्त थी जबकि गोपीचलकी शाखा-पीठ वहाँ स्थापित भी नहीं हुई थी। जनता सोनागिरिको निर्वाण-क्षेत्र मानती थी, उसकी यात्रा करती थी, इसीसे तो आकर्षित होकर गोपाचलके भट्टारकने सोनागिरिमें अपनी शाखा-पीठ स्थापित की, अन्यथा उनके लिए सोनागिरिको शाखा-पीठ बनानेमें आकर्षण क्या था? दूसरी बात यह है कि गोपाचल और सोनागिरिमें कोई विशेष अन्तर नहीं है। फिर इतने निकट अपनी दूसरी गद्दी बनानेका अर्थ ही यह है कि उन दिनोंमें सोनागिरि क्षेत्रकी मान्यता बहुत अधिक थी। इसीसे प्रेरित होकर इतने निकट भट्टारकजोने अपनी दूसरी गद्दी स्थापित की। सोनागिरिकी मान्यताके लिए यह एक प्रबल तर्क है। .