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________________ ७० भारतके दिगम्बर जैन तीर्थकिन्तु उक्त जीणं शिलालेख अस्पष्ट था, अतः उसका संवत् ठीक पढ़ा नहीं गया। अतः जो संवत् ३३५ दिया गया है, वह सही नहीं है । उसका कारण स्पष्ट है । लेखमें मूलसंघ बलात्कारगण दिया गया है, किन्तु ईसाकी तीसरी-चौथी शताब्दीमें बलात्कारगण था ही नहीं। प्राचीन लेख अस्पष्ट होनेके कारण पढ़ा नहीं जा सका, यह बात लेख लिखनेवालेने भी स्वीकार की है। लगता है, यह संवत् ३३५ न होकर १०३५ रहा होगा. जो अस्पष्टताके कारण ३३५ पढ़ लिया गया। ज्योतिषको काल-गणनाके अनुसार डॉ. नेमिचन्दजीने सिद्ध किया है कि संवत् १०३५ में पौष पूर्णिमा रविवारको पड़ती है। दिनाका अर्थ ज्योतिषशास्त्रके अनुसार रविवार भी होता है। अतः शुद्ध पाठ 'एक सहस्र पेंतीस' होना चाहिए। सारांशमें भगवान् पार्श्वनाथके पदतलके लेखका समय १२१२ संवत् दिया है अर्थात् इस संवत्की प्रतिमा उस समय यहाँ विद्यमान थी। पुरातत्त्व इस क्षेत्रको मान्यता कबसे प्रचलित है अथवा यहाँ मन्दिर निर्माणका अधिकतम काल कितना प्राचीन है, यह विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता। यहाँ सबसे प्राचीन मूर्ति वि. सं. १२३३ की है जो मन्दिर नं. १६ में विराजमान है। यदि उपर्युक्त ज्योतिष काल-गणनाके आधारपर चन्द्रप्रभ मन्दिरके शिलालेखका काल वि.सं. १०३५ मान लिया जाये तो सोनागिरिकी मान्यता ग्यारहवीं शताब्दी तक पहुँच जाती है। क्षेत्रपर चारों ओर ध्वंसावशेष बिखरा पड़ा है। उसमें से कुछ सामग्री एक संग्रहालयमें ( मन्दिर नं. ७६ में ) रख दी गयी है। इस सामग्रीका अध्ययन अभी तक पूर्णतः नहीं किया गया है, किन्तु यह कहा जा सकता है कि यहाँ ११वीं शताब्दी तककी मूर्तियाँ सुरक्षित हैं। क्षेत्रीय व्यवस्था __ इस क्षेत्रको व्यवस्था एक निर्वाचित प्रबन्धकारिणी कमेटीके अधीन है, और वह कमेटी भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटीके अन्तर्गत है। पर्वतके समी मन्दिरोंको व्यवस्था प्रबन्धकारिणो कमेटी करतो है, जबकि तलहटीके मंन्दिरों और धर्मशालाओंकी व्यवस्था विभिन्न पंचायतें करती हैं। धर्मशाला और दिल्लोवाले मन्दिरको व्यवस्था प्रबन्धकारिणी कमेटी करती है। धर्मशालाएं-यात्रियोंको ठहरनेको यहां पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध हैं। यहाँ तलहटीमें १५ धर्मशालाएँ बनी हुई हैं । यात्री इच्छानुसार किसी धर्मशालामें ठहर सकता है। मेले-क्षेत्रपर वार्षिक मेला चैत कृष्णा १ से ५ तक भरता है । क्षेत्रपर वि. सं. १८८५ में गजरथ, वि. सं. २००७ में मानस्तम्भ-प्रतिष्ठा और वीर सं. २४८० में बाहबली-महामस्तकाभिषेक हआ। इन अवसरोंपर उल्लेख-योग्य मेले भरे और हजारोंको संख्या में यात्री पधारे थे। क्षेत्रपर स्थित संस्थाएं-इस समय क्षेत्रपर नंगानंग पुस्तकालय, नंगानंग औषधालय और जैन संग्रहालय नामक तोन संस्थाएं हैं। इनकी व्यवस्था क्षेत्रको प्रबन्धकारिणी कमेटी करती है। __ स्वर्णगिरि या श्रमगगिरि-प्राकृत निर्वाण-काण्डकी उपर्युक्त गाथाका तीसरा चरण कुछ विवादास्पद रहा प्रतीत होता है। इस विवादका कारण विभिन्न प्रतियोंमें पाठ-भेद है। किन्हीं प्रतियोंमें 'सुवण्णगिरिवर सिहरे' पाठ प्राप्त होता है। पहले पाठके अनुसार क्षेत्रका नाम सुवर्णगिरि है, जबकि दूसरे पाठके अनुसार इस निर्वाण-भूमिका नाम श्रमणगिरि है।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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