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________________ मध्यप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थं ६९ की देखभाल किया करता था । सोनागिर क्षेत्र मूलतः बलात्कारगणके भट्टारकों का था; अतः विश्वभूषण के पश्चात् यहाँको गद्दीपर स्वतन्त्र रूपसे भट्टारक अभिषिक्त होने लगे । इस परम्परामें देवेन्द्रभूषण, जिनेन्द्रभूषण, नरेन्द्रभूषण एवं चन्द्रभूषण आदिके नाम उपलब्ध होते हैं । १५वीं शती के अपभ्रंश भाषा के विद्वान् कवि रइधूने 'रिहणोमिचरिउ' की प्रशस्ति में सोनागिरिका उल्लेख कनकगिरिके नामसे किया है 'कमल कित्ति उत्तम खम धारउ, भव्वह भव-अंकोणिहि-तारउ । तस्स पट्ट 'कणयद्दि' परिट्ठउ, सिरि सुहचन्द सु-तव-उक्कंठिउ ।' इसमें कमलकीर्ति भट्टारकके पश्चात् शुभचन्द्रका अभिषेक सोनागिरपर हुआ बताया गया है । कमलकीर्ति काष्ठासंघी, माथुरगच्छ और पुष्करगणके भट्टारक हेमकीर्तिके शिष्य थे । वि. सं. १५०६, १५१०, १५३० और १६३९ के अभिलेखोंसे ज्ञात होता है कि हेमकीर्तिके पट्टपर कमलकीर्ति, उनके पट्टपर शुभचन्द्र और उनके पट्टपर यशः सेन देव आसीन हुए । भट्टारक कमलकीर्तिने तत्त्वसारटीकाकी रचना की । यशः सेन द्वारा प्रतिष्ठापित एक दशलक्षण यन्त्र वि. सं. १६३९ का मिलता है । कमलकीर्ति के दो शिष्य थे - शुभचन्द्र और कुमारसेन । सोनागिर क्षेत्रका अधिकार शुभचन्द्र और उनकी शिष्य-परम्पराके अधीन रहा । उनका अधिकार १७वीं शताब्दी के मध्य तक रहा, अर्थात् तबतक माथुरगच्छ और पुष्करगणके भट्टारक यहाँको गद्दींके अधिकारी रहे । १७वीं शताब्दी के उत्तरार्द्धसे यह क्षेत्र कुछ दिनों तक बलात्कारगणकी अटेर शाखाके भट्टारकोंके हाथोंमें रहा । जीर्णोद्वार श्री चन्द्रप्रभ मन्दिरका जीर्णोद्धार संवत् १८८३ में जगत् सेठ लक्ष्मीचन्द्रजी मथुरावालोंने कराया था। उस समयके दो लेख मन्दिरमें उपलब्ध हैं । इनमें से एक लेख, जो किसी जीर्ण मन्दिरके शिलालेखका सारांश बताया जाता है, इस प्रकार है मन्दिर सह राजत भये, चन्द्रनाथ जिन ईस । पोशसुदी पूनम दिना, तीन सतक पैंतीस ॥ मूल संघ अर गण करो ( यो ) बलात्कार सम । श्रवणसेन अरु दूसरे, कनकसेन दुइ भाई ॥ नीजक अक्षर नांचके, कियो सु निश्चय राम । और लिख्यो तो बहुत सो सो तह पर्यो लखाय ॥ द्वादश सतक बरुतरा, पुन्यी जीवनसार । पारसनाथ-चरण तरे, तासों विदी ( धी) विचार ॥ इसमें बताया है कि संवत् ३३५ पौष सुदी १५ का उक्त जीर्ण शिलालेख था । और उसमें मूलसंघ बलात्कारगणके श्रवणसेन - कनकसेन दो भाइयोंका उल्लेख था । सम्भवतः प्राचीन लेख जीर्णोद्धार के समय चरणोंके नीचे लिखा हुआ था, उसके आधारसे यह संवत् उद्धृत किया गया और मूल लेख दब गया। यदि यह उल्लेख किन्हीं भी प्रमाणों या साक्ष्योंके आधारपर सत्य सिद्ध हो पाता तो वस्तुतः इसका ऐतिहासिक दृष्टिसे बड़ा महत्त्व होता ।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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