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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ तब मनमें यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि इन चैत्यालयोंमें मूर्तियोंकी संख्या १००८ रखानेका प्रयोजन क्या है। इसके लिए कोई शास्त्रीय साक्ष्य उपलब्ध नहीं है । कुछ विद्वान् १००८ प्रतिमाओंको भगवान्के १००८ गुणोंका प्रतीक बताते हैं। कुछ विद्वान् पंच परमेष्ठीके साथ इसका सम्बन्ध बताते हैं। एक मान्यताके समाधान अनेक हो सकते हैं। हमारी विनम्र मान्यता है कि गुणोंकी प्रतीकात्मकताके लिए तीर्थकर मूर्तियोंकी कल्पना अधिक बुद्धिसंगत नहीं लगती। गुणों और धर्मोकी मूर्तियाँ बनानेकी परम्परा कभी रही हो, ऐसा भी उल्लेख पुरातत्त्व और इतिहासमें नहीं मिलता। लगता है, वैष्णव सम्प्रदायमें जब बहुदेवतावादका जोर था और उसके आधारपर अनेक देवी-देवताओंकी मतियोंका निर्माण हो रहा था उन्हीं दिनों जैनोंमें विष्णु-वैष्णवों और जैनोंकी सैद्धान्तिक मान्यताओंमें मौलिक अन्तर था। वैष्णवोंमें एक विष्णुके अनेक रूप हैं, जैनोंमें किसी एक ऐसी तीर्थंकरकी मान्यता नहीं रही जिसके अनेक रूप होते हैं। यहां तो २४ तीर्थंकरोंका भी एक रूप है। तथापि सभी तीर्थंकरोंका एक नाम होता है 'जिन' और जिनके सहस्रनाम होते हैं । 'आदिपुराण' पर्व २५, श्लोक २२४ में इन्द्र भगवान् ऋषभदेवकी स्तुति सहस्रनामों द्वारा करता हुआ कहता है : . "हे भगवन् ! हम लोग आपको नामावलीसे बने हुए स्तोत्रोंकी मालासे आपकी पूजा करते हैं।" बहुदेवतावादके इस कालमें इन्द्र द्वारा की गयी नामावली स्तुतिके प्रत्येक नामको एक रूप या आकार देकर १००८ आकार या मूर्तियोंका एक समवेत चैत्यालय बनाकर भगवान्की पूजा करनेकी पद्धतिका विकास हुआ। सहस्रनाम स्तोत्रमें सहस्र शब्द होते हुए भी १००८ नामोंमें भगवानकी स्तुति की गयी है । इन्द्रने जो स्तुति की थी, वहां भगवान् एक थे, उनके नाम १००८ थे। सहस्रकूट चैत्यालयमें भगवान् एक हैं और उनकी मूर्तियाँ १००८ हैं। उनके प्रत्येक नामकी एक मूर्ति है। स्तोत्रमें १००८ नाम एक स्थानपर प्राप्त हैं। सहस्रकूट चैत्यालयमें १००८ मूर्तियाँ एक स्थानपर प्राप्त हैं। दोनों ही स्थानोंपर भगवान् एक हैं। सम्भवतः सहस्रकूट चैत्यालय निर्माणके पीछे यही भावना काम करती प्रतीत होती है।
यदि उपर्युक्त कल्पनामें कोई तथ्य है, तो निष्कर्षमें यह भी मानना होगा कि जिस बहुदेवतावादसे सहस्रकूट चैत्यालयके निर्माणकी प्रेरणा मिली थी, वह जैन धर्मके अनुकूल नहीं था। अतः सहस्रकट चैत्यालयके निर्माणकी परम्परा जेन समाजमें अधिक लोकप्रिय नहीं हो सकी।
इसमें एक बात विशेष रूपसे विचारणीय है। 'सहस्रकूट चैत्यालय' में 'कूट' शब्द हमारा ध्यान आकर्षित करता है । सम्मेदशिखरपर तीर्थंकरोंके कूट बने हुए हैं, जैसे-नाटककूट, संकुलकूट, सुप्रभकूट, मोहनकूट, ललितकूट आदि। इन नामोंकी क्या सार्थकता है, यह तो ज्ञात नहीं है किन्तु इन नामोंके साथ जो 'कूट' शब्द है, उसका अर्थ है 'चोटी' सबसे ऊपर का भाग । 'तिलोयपण्णत्ति' अध्याय ४ में लोकमें चैत्यालयोंका अवस्थान बताते हए लिखा है-भवनवासी देवोंके सात करोड़ बहत्तर लाख भवनोंकी वेदियोंके मध्य में स्थित प्रत्येक कूटपर एक-एक जिन-भवन हैं। रत्नप्रभा पृथ्वीमें स्थित व्यन्तरदेवोंके तीस हजार भवनोंके मध्य वेदीके ऊपर स्थित कूटोंपर जिनेन्द्र प्रासाद हैं। हिमवान् पर्वतके दस कूटोंपर व्यन्तरदेवोंके नगर हैं। इनमें जिन-भवन हैं। इस प्रकार 'कूट' शब्दका प्रयोग कई स्थानोंपर जिनालयोंके प्रसंगमें मिलता है। लेकिन सभी स्थानोंपर कूट शब्दका प्रयोग 'चोटी या ऊपरका भाग' इस अर्थमें ही मिलता है। लोकोंमें कूटोंकी संख्या करोड़ोंमें है। यदि उन करोड़ों कूटोंके प्रतीकके रूपमें जिनालयोंका निर्माण किया गया है, तब तो 'सहस्रकूट जिनालय' के स्थानपर 'कोटिकूट जिनालय' नाम होना चाहिए।
यद्यपि इस प्रकारको शंकाको सम्भावना हो सकती है, तथापि तथ्य यही प्रतीत होता है