________________
मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२१९ कि उन कोटिकूट जिनालयोंकी एक प्रतीकात्मक विधाका विकास हुआ है और उसका नाम 'सहस्रकूट चैत्यालय' रखा गया।
__ मन्दिर क्रमांक ७-भगवान् पाश्र्वनाथकी श्वेत पाषाणकी, सप्त फणावली-मण्डित, पद्मासनस्थ चार फुट ऊंची प्रतिमा मूलनायककी है। जिन्हें विघ्नहर पार्श्वनाथ भी कहा जाता है। यद्यपि आसनमें कमल चिह्न अंकित है। मन-वचन-कायसे इनका जप किये जानेपर विघ्नोंके नष्ट हो जानेका अतिशय अनेक बार देखा-सुना गया बताया जाता है। मूर्ति-लेखके अनुसार इस प्रतिमाकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १८६३ में हुई। वर्तमान प्रबन्ध समिति द्वारा सन् १९६९ में इस मन्दिरका जीर्णोद्धार कराकर नवीन वेदी आकर्षक एवं खुली हुई बनायी गयी है।
इस वेदीमें कलचुरिकालीन प्रतिमाएं भी विराजमान हैं। एक शिलाफलकमें २ फुट ७ इंच अवगाहनाकी महावीर भगवान्की कायोत्सर्ग आसनवाली प्राचीन प्रतिमा है। आकाशमें गन्धर्व पुष्पवर्षा के लिए तैयार जान पड़ते हैं। भगवान्के दोनों ओर चमरवाहक इन्द्र खड़े हुए हैं । २ फुट ३ इंच ऊँची भगवान् शान्तिनाथकी प्रतिमा अपनी शान्त छविसे दर्शकका मन मोह लेती है। इनके अतिरिक्त ५ और पाषाण मूर्तियाँ तथा कुछ धातुको मूर्तियां और मेरु हैं। इस मन्दिरको 'बड़ा मन्दिर' कहते हैं।
मन्दिर नं.८-जीनेसे ऊपर जाकर, बायें-इस मन्दिरमें पहले सहस्रकूट चैत्यालय विराजमान था। अब उसके नीचे मन्दिर नम्बर ६ में चले जानेसे उसके रिक्त स्थानपर एक सुन्दर चबूतरा निर्मित कराकर 'पाषाण स्तम्भ' में अंकित तीर्थंकर चौबीसी जिसे 'सर्वतोभद्र प्रतिमा' भी कहते हैं, विराजमान कर दी गयी है।
मन्दिर नं.९-जीनेसे ऊपर जाकर, बायें-इस मन्दिरमें नन्दीश्वर द्वीपके ५२ जिनालयोंकी रचना है। यह रचना चार स्तम्भोंपर आधारित एक वेदो मण्डपके नीचे है। एक कमलासन पर, मध्यमें एक स्तम्भमें बीस प्रतिमाएं बनी हुई हैं। चारों दिशाओंमें चार स्तम्भ हैं, जिनमें प्रत्येकमें बीस प्रतिमाएं हैं। तीन स्तम्भ चौबीस मूर्तियोंवाले हैं और एक स्तम्भ सोलह मूर्तियोंवाला है। ५२ जिनालयोंके कुछ खण्डित भाग, जो इस रचनाकी शोभाकी कहानी सुना रहे हैं, कुछ एक स्थानपर इसी प्रकोष्ठमें रखे हुए हैं। इसके कुछ मेरु सहस्रकूट चैत्यालयमें विराजमान हैं। वस्तुतः यह रचना उपर्युक्त कारणोंसे अधूरी है जिसे पूर्ण किया जाना चाहिए । प्रबन्ध समितिके पदाधिकारियोंने बताया कि इस मन्दिरका जीर्णोद्धार कराने एवं खण्डित मूर्तियोंका निर्माण करानेके लिए श्री शिखरचन्दजी, विनीत टाकीज, जबलपुर वचनबद्ध हैं। यथाशीघ्र यह कार्य प्रारम्भ होगा। नदीश्वर जिनालय
तिलोयपण्णत्ति और त्रिलोकसार ग्रन्थोंके अनुसार नन्दीश्वर द्वीपकी रचना इस प्रकार है
मध्य लोकमें लोकद्वीपोंकी श्रृंखलामें आठवां द्वीप नन्दीश्वर है। इसके बहुमध्य भागमें पूर्व दिशामें काले रंगका एक अंजनगिरि है। उस अंजनगिरिके चारों ओर चार वापियाँ हैं। प्रत्येक वापीके चारों दिशाओंमें अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र नामक चार वन हैं। प्रत्येक वापीमें सफेद रंगका एक-एक दधिमुख पर्वत है। प्रत्येक वापीके बाह्य दोनों कोनोंपर चार रतिकर पर्वत हैं। ( जिनमन्दिर केवल बाहरवाले दो रतिकरोंपर ही होते हैं, आभ्यन्तर रतिकरोंपर देवगण क्रीड़ा करते हैं। ) इस प्रकार एक दिशामें एक अंजनगिरि, चार दधिमुख, आठ रतिकर ये सब मिलकर तेरह पर्वत हैं। इनके ऊपर तेरह जिनमन्दिर स्थित हैं। इसी प्रकार शेष तीन