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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ दिशाओंमें भी सम्पूर्ण रचना इसी प्रकार है । कुल मिलाकर ५२ जिनालय, १६ वापियां और ६४ वन हैं । अष्टाह्निका पर्वमें सौधर्म आदि इन्द्र एवं अन्य देवगण बड़ी भक्तिसे इन मन्दिरोंकी पूजा करते हैं। पूर्व दिशामें कल्पवासी, दक्षिणमें भवनवासी, पश्चिममें व्यन्तर और उत्तरमें ज्योतिष्क देव पूजा करते हैं । नन्दीश्वर द्वीपकी इसी परिकल्पनाकी रचना कोनीजीमें की गयी है। कोनी दहनका दुःखद इतिहास
कोनी कभी नगर रहा होगा, ऐसा विश्वास होता है । यद्यपि वर्तमानमें जैन मन्दिर-समूहके अतिरिक्त वहाँ इने-गिने कुछ घर हैं। किन्तु इस क्षेत्रके चारों ओर बिखरे हुए भग्नावशेषों, इंटपत्थरोंसे ऐसा प्रतीत होता है कि इस स्थानने कभी किसी युगमें वैभवके दिन देखे हैं। इस स्थानपर कभी कोई नगर आबाद था, इसके लिए अधिक प्रमाणोंकी आवश्यकता नहीं है। क्षेत्रके निकट सड़कके दोनों ओरके टीलोंको एक बालिश्त भी खोदें तो वहाँ राखके अतिरिक्त कुछ भी उपलब्ध नहीं होगा। विशाल भू-भागमें फैली हुई यह राख अपने आंचलमें यहाँका इतिहास संजोये हुए है । यह निश्चय ही दग्ध नगरकी राख है। यह राख ही हमें यह सोचनेके लिए विवश करती है कि यह दुष्कर्म धर्मान्ध आततायियोंका नहीं है, यदि उनका यह कार्य होता तो वे मन्दिरोंको परिवर्तित करते अथवा मूर्तियोंको भग्न और खण्डित करते। किन्तु इस प्रकारको विध्वंसलीला यहां दिखाई नहीं देती। यहांकी विनाश-लीलाका रूप कुछ और ही प्रकारका है। सत्ताके उन्मादने इस समूचे नगरको जलाकर भस्म कर दिया हो, ऐसा लगता है।
अक्टूबर, सन् १८५७ में पाटन तहसीलका समीपी गाड़ाघाट ग्राम अंग्रेजी शासनके विरुद्ध, जन-विद्रोहका केन्द्र बना हुआ था। गाड़ाघाट ग्रामके वीर गजराजसिंहके नेतृत्वमें जन-सेनाके हाथों अंग्रेजी सेना और देशद्रोहियोंकी निर्वीर्य जमात कई बार करारी मात खा चुकी थी। तब तोपों और शस्त्रास्त्रोंसे सज्जित अंग्रेजी घुड़सवार सेना गाडाघाटपर चढ़ दौड़ी। उसमें असंख्य देशभक्त काम आये। तब क्रुद्ध अंग्रेजोंने जनतासे भीषण प्रतिशोध लिया। जबलपुरके तत्कालीन कमिश्नर एसकिनने अपनी रिपोर्टमें लिखा है-"हमारी विजयी सेनाओंने क्रान्तिकारियोंके ग्रामोंको भस्मसात् करनेमें कोई कसर नहीं छोड़ी....जो भी ग्रामवासी वृद्ध, स्त्री, बच्चे सामने पड़े, मिर्दयतापूर्वक मार डाये गये।" गाडाघाट, कोनी, पाटन, भिडारी, नीमी, मिहगवां, जटवा, बासन, उमरिया, रमपुरा आदि गांवोंके देशभक्त या तो मार दिये गये या वे नगर-गांवोंको छोड़कर भाग गये । उन नगरों-गांवोंको अंग्रेजोंने आग लगाकर नष्ट कर दिया। आज गाड़ाघाटकी पूर्वकालीन वैभवपूर्ण स्थिति नहीं रही। वहाँके विशाल जैन मन्दिरोंकी मूर्तियाँ पाटन पहुँचा दी गयीं। कोनी नगर जलाकर भस्म कर दिया गया था। वहाँके निवासी पुनः लौटकर नहीं आये। किसीने उस नगरके पुनर्निर्माणका प्रयत्न नहीं किया। यही है कोनीके भस्मावशेषका इतिहास ।
पुरातत्त्व
क्षेत्रके आसपास प्राचीन मन्दिरोंकी शिलाएं, स्तम्भ तथा अन्य सामग्री बिखरी पड़ी है। मन्दिरोंके पृष्ठ भागमें किसी मन्दिरके सिरदल या तोरणका भाग पड़ा है। इसके ललाट-बिम्बपर पद्मासन प्रतिमा बनी हुई है। उसके दोनों पावोंमें भग्न दशामें चमरेन्द्र खड़े हैं। बायीं ओर अष्ट मातृकाएँ उत्कीर्ण हैं और दायीं ओर नवदेवताओं अथवा नवग्रहोंका प्रतीकात्मक अंकन है। नोचेकी पंक्तिमें नृत्यमुद्रामें देवियां दिखाई पड़ती हैं। दोनों सिरोंपर देवियां खण्डित हैं। मन्दिरोंके अहातेके निकट कुछ शिलाएं पड़ी हुई हैं जो किसी प्राचीन मन्दिरके ध्वंसावशेष प्रतीत होते हैं।