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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२१७ मन्दिर क्रमांक ६-इस मन्दिरको 'गर्भ-मन्दिर' कहा जाता है। शीत ऋतुमें इस मन्दिरमें उष्णता रहती है । यद्यपि मन्दिरमें पक्षावकाश बने हुए हैं किन्तु मन्दिरकी ऊष्माका क्या रहस्य है यह अब तक अविदित ही बना हुआ है। भक्तजन श्रद्धावश इसे वातानुकूलित कहते हैं। इस मन्दिरमें समय-समयपर अतिशय भी होते रहते हैं। पहले इस मन्दिरमें भगवान् चन्द्रप्रभुकी मूर्ति विराजमान थी। प्रत्यक्षदर्शियोंके अनुसार इस प्रतिमापर एक बार पसीनाकी भांति जलकण दिखाई दिये थे। सूखे छन्नेसे पोंछनेपर वह गीला हो गया था। अब उस प्रतिमाको यहाँसे अन्य मन्दिरमें विराजमान कर उसके स्थानपर सहस्रकूट चैत्यालय विराजमान कर दिया गया है। पहले यह चैत्यालय ऊपर मन्दिर नं. ८ में था। जबलपुरके सवाई सिंघई नेमीचन्दजीने इस मन्दिरका जीर्णोद्धार कराकर सहस्रकूट चैत्यालयको यहाँ विराजमान किया है जिसके उपलक्ष्यमें क्षेत्रकी प्रबन्ध समितिने उन्हें 'तीर्थभक्त' की उपाधिसे सम्मानित किया है।
यह चैत्यालय एक अष्टकोण स्तम्भमें बना हुआ है। इसमें तीन कटनियां हैं । इस चैत्यालयकी कटनियोंपर मेरु भी विराजमान थे, किन्तु वे किसी समय खण्डित हो गये तब मूर्तियोंकी संख्या पूरी करनेके लिए नन्दीश्वर जिनालयकी रचनामें-के कुछ मेरुओंको यहाँ इस चैत्यालयमें विराजमान कर दिया है। अब सहस्रकूट चैत्यालयकी इस रचनाको मूर्तियोंकी गणनाका योग इस प्रकार है
नीचेकी कटनीमें चारों दिशाओंमें ५१४८-४०८ १ फुट १० इंच मध्यकी कटनीमें चारों दिशाओंमें ४५४८ = ३६० १ फुट ११ इंच ऊपरको कटनोमें , , १५४८=१२० १ फुट ११ इंच मेरुओंकी मूर्ति संख्या
४४८= ३२ मेरुओंकी मूर्ति संख्या
२०४४ - ८० मेरुओंकी मूर्ति संख्या
२४४- ८
कुल योग १००८ इन मेरुओंका माप इस प्रकार हैऊपरका मेरु
२ फुट २ इंच चारों दिशाओंके मेरु क्रमशः
१ फुट ८ इंच, १ फुट ९ इंच,
१ फुट १० इंच, १ फुट ११ इंच - .. पूर्व दिशाका एकमात्र मेरु
८ इंच सहस्रकूट जिनालय कई स्थानोंपर मिलते हैं। दिगम्बर परम्परामें इन जिनालयोंमें १००८ मूर्तियां बतायी जाती हैं जबकि श्वेताम्बर परम्परामें १००० मूर्तियोंका प्रचलन है। बाणपुर, पटनागंज, सम्मेदशिखर, दिल्ली आदि कई स्थानोंपर प्राचीन सहस्रकूट जिनालय हैं। इन सभीमें १००८ मूर्तियां हैं । सहस्रकूट जिनालयोंका प्रचलन कबसे है, निश्चित रूपसे यह कहना कठिन है, किन्तु १०वी-१२वीं शताब्दीसे इसका प्रचलन निश्चित रूपसे रहा है । गुप्तोत्तर युगमें मूर्ति-शिल्पमें वैविध्य दृष्टिगोचर होता है। यह वैविध्य शैली, सज्जा और शासन देवताओंकी मतियोंमें तो दष्टिगोचर होता ही है, तीर्थंकरों और मन्दिरोंके प्रतीक रूपोंमें भी दिखाई पड़ता है। इन प्रतीकात्मक विधाओंमें ही सहस्रकूट चैत्यालयोंकी गणना की जा सकती है। ये चैत्यालय किसी तीर्थकर विशेषका प्रतिनिधित्व नहीं करते। इसलिए इन चैत्यालयोंमें मूर्तियोंके नीचे किसी लांछनका अंकन नहीं मिलता।
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