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________________ २३६ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ (१८) एक शिलाफलकमें चतुर्विशति तीर्थकर प्रतिमाएँ। मध्यमें पाश्र्वनाथ-प्रतिमा। वक्षसे नीचेका भाग नहीं है। (१९) एक खण्डित मूर्ति । सिर नहीं है तथा पद्मासनसे नीचेका भाग नहीं है । (२०) २ फुट ९ इंच उन्नत एक पाषाणफलकपर पद्मासन मुद्रामें तीर्थंकर-प्रतिमा, सिरके दोनों पावों में पारिजात पुष्पोंकी माला लिये हुए गन्धर्व, उनसे नीचे एक पद्मासन प्रतिमा, नीचे चमरेन्द्र । एक ओरका चमरेन्द्र नहीं है। (२१) एक विशाल तीर्थकर मति कायोत्सर्गासनमें। छातीसे नीचेका भाग नहीं है । (२२) एक फलक २ फुट ८ इंच ऊंचा। उसपर पद्मासनस्थ जिन-प्रतिमा । सिर नहीं है । परिकरमें १३ पद्मासन जिन-प्रतिमाएं। छत्र, चमरेन्द्र, यक्ष और यक्षी हैं। (२३ ) एक कक्षमें ३ फुट २ इंच ऊँचे शिलाफलकमें आदिनाथ तीर्थकरकी खड्गासन प्रतिमा। मस्तकके ऊपर छत्र और पीछे भामण्डल है। शिरोभागपर मध्यमें दुन्दुभि, दोनों पार्यों में आकाशमें पुष्पमाला हाथमें लिये हुए गन्धर्व तथा अधोभागमें चमरवाहक इन्द्र हैं। ( २४ ) ऋषभदेव प्रतिमा पद्मासन मुद्रामें सिरविहीन है। वर्तमान स्थितिमें २ फट ऊंची है। चमरेन्द्र गजपर खडे हैं। सिंहों ( सिंहासनके ) दोनों ओर मानस्तम्भ अंकित हैं। कोनोंपर बायीं ओर गोमुख यक्ष और दायीं ओर चक्रेश्वरी यक्षीका अंकन है। कुछ प्राचीन प्रतिमाएं उदयगिरि आदि स्थानोंसे प्राप्त हुई थीं। वे श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्दजीके जिनालयमें सुरक्षित हैं। इनमें कई प्रतिमाएं गुप्त और कलचुरि कलाके मिश्रित प्रभावकी अनुपम कलाकृतियां हैं। इनका अनुमित काल ९वीं १०वीं शताब्दी माना जाता है। इन मध्यकालीन प्रतिमाओंके कारण यह जिनालय एक लघु संग्रहालय बन गया है। ये प्रतिमाएं बाह्य कक्षमें बनाये गये आलोंमें सुरक्षित हैं। कई अखण्डित प्रतिमाएं वेदियोंमें विराजमान हैं। इनके कलागत वैशिष्ट्यका समुचित मूल्यांकन होना अभी शेष है। उदयगिरिके आसपास जैन पुरातत्व इसके निकटवर्ती अनेक स्थानोंपर प्राचीन मन्दिरों, मूर्तियों, स्तम्भों आदिके भग्नावशेष प्राप्त होते हैं । इन अवशेषोंमें जैन सामग्री भी विपुल परिमाणमें मिलती है। इन स्थानोंमें उदयपुर, पठारी, बड़ोह, ऐरन, तिगोवा ये स्थान मुख्य हैं। इन स्थानोंपर प्राचीन जिनालयोंके ढेर पड़े हुए हैं, और कुछ खण्डित-अखण्डित जैन प्रतिमाएं पड़ी हुई हैं। कुछ जिनालय अर्धभग्न दशा में हैं तथा कुछ मूर्तियोंको मूर्तिचोरों अथवा बन्य. असामाजिक तत्त्वोंने बहुत क्षति पहुंचायी है। किन्तु जो सामग्री अब तक इन स्थानोंमें सुरक्षित बची हई हैं, वह ऐतिहासिक दृष्टिसे अत्यन्त मूल्यवान् है। उसका काल गुप्त-काल ( चौथोसे छठी शताब्दी ) से १०वीं-११वीं शताब्दी तक है। ये स्थान यद्यपि तीर्थक्षेत्र नहीं हैं इस कारण इन स्थानों और वहाँको पुरातत्त्व-सामग्रीका व्यवस्थित सर्वेक्षण नहीं किया जा सका, तथापि इन स्थानोंको कलातीर्थ कहा जा सकता है। इस नाते ही उनके बारेमें कुछ पंक्तियां लिखी जा रही हैं उदयपुर यह स्थान विदिशासे उत्तरकी ओर ४५ कि. मी. दूर है। इस नगरको स्थापना परमारनरेश उदयादित्यने की थी। यह धारानरेश भोजका सम्भवतः भाई था। इस नगरको स्थापनाका भी बड़ा रोचक इतिहास है, जो किंवदन्तीके रूपमें प्रचलित है। कहते हैं-एक बार राजा उदयादित्य
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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