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________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ २३७ जंगलमें शिकार खेलने गया। उसके सैनिक पीछे रह गये। वह जंगलमें एक ऐसे स्थानपर पहुँचा जहाँ आग लग रही थी। उसकी दृष्टि एक सपंपर पड़ो जो मैदानमें अपने बिलसे बाहर पड़ा हुआ था। आगकी गर्मीके कारण वह प्याससे व्याकुल हो रहा था। राजाने दया करके एक बाँस द्वारा उस साँपको बचाया। सांपने व्याकुल होकर राजासे पानी मांगा। राजाने कहा-'यहाँ तो आसपासमें कहीं जल नहीं है। मैं राजमहलमें पहुंचकर वहाँसे जल भेज दूंगा।' किन्तु सर्प गिड़गिड़ाकर बोला-'इतनी देरमें तो मेरे प्राण ही निकल जायेंगे। आप अपने मुंहमें मेरा फन रख लीजिए। मुझे इतनेसे ही शान्ति मिल जायेगी।' राजाको भय हुआ कि ऐसा करनेसे साँप कहीं पेटमें चला या तब क्या होगा। उसने अपना यह भय कह सनाया। किन्तु सांपने शपथ खाकर विश्वास दिलाया कि वह विश्वासघात नहीं करेगा। राजाने उसका विश्वास करके फन अपने मुखमें रख लिया, किन्तु अकस्मात् सांप राजाके पेटमें चला गया। राजा अपने नगरमें लौट गया। उसे पेटमें भयंकर पीड़ा रहने लगी। सभी उपचार व्यर्थ हुए। तब उसने जोवनसे निराश होकर काशीमें जाकर प्राण-त्याग करनेका निश्चय किया। वह रानी और कुछ सेवकोंको लेकर वहांसे चल दिया और मुर्तिजानगर पहुंचा। रातका समय था। राजा सो रहा था। रानी चिन्ताके कारण जाग रही थी। रानीने देखा-सांप राजाके मुँहमें से निकला और फण फैलाकर बैठ गया। तभी एक दूसरा साँप एक बिलमें-से निकला। दोनों सांपोंने एक-दूसरेको क्रोधभरी दृष्टिसे देखा, फिर उनमें बातें होने लगी। बिलवाला सांप बोला'तू बड़ा मक्कार और झूठा है। तूने अनेक कसमें खायीं, फिर भी तू उसी व्यक्तिको मारनेपर तुला हुआ है, जिसने तेरे प्राण बचाये। अगर राजाको ज्ञात हो जाये कि काली मिर्च, नमक और मट्ठा पीनेसे तेरी मृत्यु हो सकती है तो वह पीकर तेरे विश्वासघातका बदला ले सकता है।' पेटवाला सांप फुफकारकर बोला-'तू खजानेपर क्यों बैठा रहता है। अगर किसीको ज्ञात हो जाये कि गर्म तेल तेरे बिलमें डालनेसे त मर सकता है तो सारा खजाना उसे मिल जाये।' इन दोनों सांपोंकी बात रानी सुन रही थी। प्रातःकाल होनेपर रानीने सांपोंमें हुई बातचीत राजाको कह सुनायी। राजाने छाछमें नमक और काली मिर्च मिलाकर पी ली। उससे सांप टुकड़े-टुकड़े होकर उलटी द्वारा निकल गया। बिलमें गरम-गरम तेल डाला गया। इससे सांप मर गया और विपुल धन वहांसे प्राप्त हुआ। उस धनसे राजाने उस स्थानपर एक विशाल मन्दिर बनवाया, जिसे 'उदयेश्वर मन्दिर' कहते हैं। वहां राजाने एक नगरको भी स्थापना की, जिसका नाम राजाके नामपर 'उदयपुर' रखा गया। कुछ समय तक यह नगर उदयादित्यको राजधानी भी रहा। उदयपुर नगरकी स्थापनाके सम्बन्ध में प्रचलित इस किंवदन्तीसे मिलती-जुलती किंवदन्तियाँ कई नगरों और राजाओंके साथ जुड़ गयी हैं। जैसे, निमाड़ जिलेमें स्थित ऊनके सम्बन्धमें भी लगभग यही कहानी प्रचलित है। उत्तरप्रदेशके ललितपुर नगरको स्थापनाके सम्बन्धमें भी ऐसी ही एक अद्भुत और रोचक किंवदन्ती प्रचलित है। कहते हैं, महोबाके चन्देल राजा सुमेरसिंहको जलोदर हो गया। बहुत उपचार किया, किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। तब जीवनसे निराश होकर वह हिमालयकी ओर बर्फमें प्राण-विसर्जन करने चल दिया। साथमें उसकी रानी ललिता थी। उनका पड़ाव बयानामें था। रातमें राजा सो गया। रानी बैठी हुई पंखा झलती रही। थोड़ी देर बाद रानीने आश्चर्यके साथ देखा कि एक साँप राजाके मुख में-से रेंगता हुआ बाहर निकला और इससे भी अधिक आश्चर्य उसे एक दूसरे साँपको पेटवाले सांपके साथ बातें करते हुए देखकर हुआ। दोनों सांपोंकी बातचीत वही हुई जो ऊपर बतायी गयी है। साधारण-सा अन्तर यह है कि
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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