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भारतके बिगम्बर जैन तीर्थ पावागिरि
सिद्धक्षेत्र
यह सिद्धक्षेत्र है । यहाँसे स्वर्णभद्र आदि चार मुनि निर्वाणको प्राप्त हुए थे। ये स्वर्णभद्र कौन थे, इस सम्बन्धमें विशेष जानकारी नहीं मिलती। एक सुवर्णभद्र उज्जयिनी नरेश श्रीदत्तके पुत्र थे। उन्होंने अपने पिताके समान ही एक विशाल यात्रा संघ स्वर्णगिरिको यात्राके लिए निकाला था । इस यात्रा - संघ में मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ सम्मिलित था । इसमें अनेक राजा और स्त्री-पुरुष थे । उसने स्वर्णगिरिको यात्रा आनन्द पूर्वक की। एक दिन उसके मनमें संसार और भोगोंके प्रति तीव्र विराग जागृत हुआ । उसने मुनि दीक्षा ले ली और घोर... तप करके स्वर्णगिरिसे पाँच हजार मुनियोंके साथ मुक्ति प्राप्त की। इस कथानकसे तो स्वर्णगिरिसे मुक्ति प्राप्त करनेवाले सुवर्णभद्र और पावागिरिसे निर्वाण प्राप्त करनेवाले सुवर्णभद्र भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे । यह सिद्ध होता है । अतः पावागिरिसे मुक्त होनेवाले सुवर्णभद्र और अन्य तीन मुनियोंका परिचय अन्वेषणीय है ।
पावागिरिसे इन सुवर्णभद्रादि चार मुनियोंकी मुक्ति प्राप्तिसे सम्बन्धित उल्लेख प्राकृत निर्वाण - काण्ड में मिलता है । यथा
"पावागिरिवरसिहरे सुबण्णभद्दाइमुणिवरा चउरो । चलणाणईतडग्गे णिव्त्राण गया णमो तेसि || १३|| "
अर्थात् पावागिरिके शिखरपर चलना नदी के तटपर सुवर्णभद्र आदि चार मुनीश्वर निर्वाणको प्राप्त हुए ।
इस गाथा के अनुसार यह सिद्धक्षेत्र चलना नदीके तटपर अवस्थित था। संस्कृत निर्वाणभक्ति नदीका नाम न देकर केवल इतना ही उल्लेख कर दिया है - ' नद्यास्तटे जितरिपुश्च 'सुवर्णभद्रः' अर्थात् कर्मशत्रुओंको जीतनेवाले सुवर्णभद्र नदीके तटपर मुक्त हुए ।
भट्टारक गुणकीर्तिने पावागिरिको सिद्धक्षेत्र तो माना है किन्तु उन्होंने इसके लिए 'चलणा नयतटाक' अर्थात् 'चलना नदीके तटसे' यह प्रयुक्त किया है तथा यहाँसे साढ़े तीन करोड़ मुनियोंका निर्वाण होना माना है। उनका तत्सम्बन्धी अंश' इस प्रकार है
"चलणा नयतटाकि आहूढ कोडि सिद्धासि नमस्कार माझा ।'
भट्टारक श्रुतसागरने भी इस क्षेत्रका नाम न देकर 'चलनानदी तट'" शब्द दिया है । भट्टारक ज्ञानसागरने 'सर्वतीर्थं वन्दना' नामक रचना में पावागिरिके स्थानपर ऊन नाम दिया है और उसकी बड़ी प्रशंसा की है। मूल पाठ इस प्रकार है ।
"ऊननयर अभिराम देश नमिआउ मनोहर । शिखरबद्ध प्रासाद भविक जीव मन सुखकर । देखत परमानन्द पूजत पाप बिनासे । मन चिते जे कोय तास सुभ ज्ञान प्रकासे ॥ दर्शन देखत जे निपुन पाप ताप दूरे पले ।
ब्रह्म ज्ञानसागर बदति मन चितित फल सवि फले ॥८४॥ |
१. तीर्थवन्दन संग्रह, पृ. ५१ ।
२. बोध प्राभृत टीका - गाथा २७ ।