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________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ २९१ यहाँ विचारणीय यह है कि यति मदनकीर्ति १३वीं शताब्दीके विद्वान् हैं । उन्होंने इस मूर्तिका उल्लेख किया है । इसका अर्थ है कि यह मूर्ति उनसे पूर्वको है । यतिजीने इसके निर्माताका नाम अकीर्ति लिखा है । इस नामके तत्कालीन किसी नरेशका पता इतिहास-ग्रन्थों में नहीं मिलता । सम्भवतः यह कोई छोटा-मोटा राजा रहा होगा । यतिजीसे भी पूर्वकालके दो लेख इस मन्दिरके सभामण्डपमें पूर्वं ओर दक्षिणकी ओर उत्कीर्ण हैं । ये लेख संवत् १२२३ ( सन् ११६६ ) भाद्रपद वदी १४ शुक्रवार के हैं । पूर्वंवाले लेखमें रामचंद्र मुनिको प्रशंसा की गयी है तथा दक्षिणवाले लेखमें मुनि लोकनन्द, देवनन्द और उनके शिष्य रामचन्द्रकी प्रशंसा करते हुए उनके द्वारा यहाँ मन्दिर निर्माण करानेका उल्लेख किया गया है । इसमें जिस मन्दिरके निर्माणका उल्लेख है, सम्भवतः वह चूलगिरि पर स्थित मुख्य मन्दिर ही है । किन्तु इसमें बड़ी मूर्तिके निर्माणके बारेमें कुछ भी संकेत नहीं किया गया । यह भी सम्भव है कि मुनि रामचन्द्रके उपदेशसे अकंकीर्ति नरेशने मुख्य मन्दिर और बड़ी मूर्तिका निर्माण कराया हो । किन्तु इस प्रकारका कोई स्पष्ट उल्लेख न होनेके कारण विश्वासपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता । इतना तो सुनिश्चित है कि शिलालेखके अनुसार मुख्य मन्दिरका निर्माण संवत् १२२३ में हुआ था और यति मदनकीर्ति द्वारा ५२ हाथ ऊँची मूर्तिका उल्लेख करने से स्पष्ट है कि यह मूर्ति मदनकीर्तिके काल में विद्यमान थी । मदनकीर्तिका इतिहाससम्मत काल १३वीं शताब्दी है । एक शिलालेख के अनुसार संवत् १५१६ में भट्टारक रत्नकीर्तिने इस मन्दिरका जीर्णोद्धार - कराया । शिलालेख का मूलपाठ इस प्रकार है 'स्वस्ति श्री संवत् १५१६ वर्षे मार्गशीर्षे वदि ९ रखो सूरसेन मेहमुन्द राज्ये श्री काष्ठासंघे माथुरगछे (च्छे ) पुष्करगणे भट्टारकः श्री श्रीक्षेमकीर्तिदेवः व्रतनियमस्वाध्यायानुष्ठानतपोपशमैकनियम भट्टारकी हेम कीर्तिदेवस्तच्छिष्य महावादवादीश्वर रायवादीपितामहसकलविद्वज्जन चक्रवर्तिनलः श्रीकमलकीर्तिदेयस्तच्छिष्यजिन सिद्धान्तपाठपयोधिनायकान्तटोपासीन मण्डलाचार्य श्रीरत्नंकीर्तिना जीर्णोद्धारः कृतः बृहच्चैत्यालयपार्श्वे दशजिनवसतिकाः कारापिताः भट्टेश्वर द्वितीयसं डालु भार्याखेतु द्वि (..) ना ( ) पद्मिनी खेतुपुत्र सं० वाढा सं पारस एतैः इन्द्रजितः प्रतिमां प्रतिष्ठाप्य नित्यमचं मन्तो पूजमन्तो वा शुभं तावच्छ्रोसंघस्य ।' . इस शिलालेखसे ज्ञात होता है कि काष्ठासंघ माथुरगच्छ पुष्करगणके भट्टारक क्षेमकीर्ति, उनके शिष्य भट्टारक हेमकीर्ति, उनके शिष्य कमलकीर्ति, उनके शिष्य भट्टारक रत्नकीर्ति देवने इसका जीर्णोद्धार कराया तथा बड़े मन्दिरके बगलमें दस जिनालय बनवाये । उन्होंने इन्द्रजीतकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा करके स्थापित की । ये भट्टारक ग्वालियर पीठके स्वामी थे । रत्नकीर्ति के गुरु कमलकीर्तिका आनुमानिक काल संवत् १५०६-१५१० है | मन्दिर में उत्तर की ओर एक लेख है । उसमें लिखा है कि संवत् १५१६ में सूत्रशालाका जीर्णोद्धार किया गया । इसका अर्थ है कि मन्दिरकी तरह सूत्रशाला भी पर्याप्त प्राचीन थी, जिससे उसके जीर्णोद्धारको आवश्यकता हुई । सारांश यह है कि बावनगजाजी मूर्तिका सही निर्माण काल तो निश्चित नहीं हो पाया, किन्तु यह १३वीं शताब्दीसे पूर्वकालिक है । यहाँका मुख्य मन्दिर १२वीं शताब्दी में निर्मित हुआ था । सम्भवतः सूत्रशालाकी रचना भी इसी कालमें हुई थी । मुख्य मन्दिरके निकटवर्ती १० मन्दिरोंका निर्माण भट्टारक रत्नकीर्तिके उपदेशसे १५वीं शताब्दीमें किया गया ।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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