SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२० भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ तटवर्ती वनके भीतर जाकर तलाश करते रहे, किन्तु जो दृश्य उन्होंने स्वप्न में देखा था, वह अब तक नहीं मिला था । खोज कई दिनों तक होती रही। तभी एक दिन उन्हें उसी जंगलमें भगवान् चन्द्रप्रभर्को अतिमनोज्ञ एक मूर्ति मिली। इस मूर्तिको प्रतिष्ठा राणा उदयसिंहके राज्यकालमें श्री विशालभूषण स्वामी प्रतिष्ठाचार्य द्वारा की गयी थी। एक और प्रतिमा भगवान् आदिनाथकी मिली जो भट्टारक सोमसेंनके द्वारा शाह माणिकचन्द हेमदत्त सुत धर्मदासने प्रतिष्ठित करायी थी । मूर्ति प्राप्त होनेपर आशा होने लगी कि अवश्य ही यहाँ कहीं मन्दिर भी रहा होगा। कुछ आगे बढ़ने पर एक जीर्ण-शीर्णं किन्तु विशाल जैन मन्दिर मिला। उसके द्वारके सिरदलपर दिगम्बर तीर्थंकर प्रतिमा बनी हुई थी। और भी दो-तीन जैन मन्दिर भग्नावशेष दशामें मिले । यद्यपि कोई शिलालेख या पुरातत्त्व सम्बन्धी साक्ष्य प्राप्त नहीं हुआ, जिसके आधारपर यह सिद्ध होता कि यह स्थान ही वस्तुतः सिद्धवरकूट क्षेत्र है, किन्तु भट्टारकजीने अपने स्वप्न में देखे स्थानके हुए साथ उस स्थानकी समानताके आधारपर यह मान लिया कि अवश्य यही स्थान सिद्धवरकूट क्षेत्र है । किन्तु फिर भी अपनी इस धारणाकी पुष्टि करा लेना उन्होंने आवश्यक समझा । तब संवत् १९४० में श्री चारुकीर्ति पण्डिताचार्य और श्री सूरसेन पट्टाचार्यंने इस स्थानका निरीक्षण करके भट्टारकजी की धारणाकी पुष्टि की। तबसे यह स्थान सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूटके रूपमें मान्य हो गया । ओंकारेश्वर मन्दिर इस क्षेत्रके निकट ओंकारेश्वर मन्दिर है । उसका आकार प्रायः ॐ जैसा है । सम्भवतः इसी कारण यह मन्दिर ओंकारेश्वर कहलाता है। यह मान्धाता टापूपर है जो नर्मदा और कावेरी के मध्य में है । मान्धाता एक पहाड़ी है जो प्रायः एक वर्गमीलमें हैं। यह मन्दिर आजकल हिन्दुओं के अधिकारमें है । इस मन्दिरका सूक्ष्म निरीक्षण करनेपर ऐसा प्रतीत होता है कि मूलतः यह मन्दिर जैनोंका रहा होगा । कुछ स्थापत्य विशेषज्ञोंने तो यहाँ तक अनुमान लगाया है कि ओंकारेश्वर मन्दिर, कोल्हापुरका अम्बिका मन्दिर और अजमेरको ख्वाजा साहब की दरगाहइन तीनोंकी रचना शैलीमें बड़ी समानता है । सम्भव है, इनकी रचना शैलीका मूल प्रेरणा स्रोत एक ही रहा हो और यह स्रोत जैन धर्म हो । ओंकारेश्वर मन्दिरके जिन्होंने दर्शन किये हैं, ऐसे कुछ विद्वानोंकी तो धारणा है कि सिद्धवरकूट इस ओंकारेश्वर पर्वतपर होना चाहिए। उनकी राय में सिद्धवरकूट नामका कोई क्षेत्र नहीं था बल्कि इस पहाड़ी के ऊपरके कूटको ही सिद्धवरकूट कहा जाता था । यहाँका दृश्य बड़ा सुन्दर । इस पहाड़ीके एक ओर कावेरी बहती है तो दूसरी ओर नर्मदा । ओंकारेश्वरका मन्दिर तिमंजिला है । इसके पासमें ही एक छतरी बनी हुई है । यहाँ कालभैरव वास करते हैं । उनके लिए अपना जीवन अर्पण करनेका विधान है । मुक्तिकामी हिन्दू लोगोंकी धारणा थी कि इस छतरी में से छलांग लगाकर पहाड़ीके नीचे बनी हुई एक शिलापर गिरकर मरनेसे मुक्ति मिलती है । इस विश्वासके अनुसार अनेक व्यक्ति यहाँसे मुक्तिकी दुराशामें मृत्युका आलिंगन करते रहे हैं। किन्तु अंगरेजी शासनने कानून द्वारा इस आत्म-हत्याको निषिद्ध करार दे दिया । Te यहाँ से मुक्ति मिलती है, इस धारणाके मूलमें कोई एक बात है, जिसको भुला दिया है और पत्थरसे सिर फोड़कर आत्महत्या करनेको मुक्ति मान लिया है । यहाँसे मुक्ति मिलती है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । यहाँसे साढ़े तीन करोड़ मुनियोंको मुक्ति मिली थी। किन्तु वह मुक्ति उन्हें 'आत्म-हत्या द्वारी नहीं मिली, वरन् सम्पूर्ण आरम्भ - परिग्रहका त्याग करके सम्यक् तपस्या द्वारा
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy