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________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ ३१९ अर्थात् रेवा नदीके दोनों तटोंसे साढ़े पांच करोड़ मुनियोंके सहित दशमुख ( रावण ) राजाके पुत्र मुक्त हुए। . रेवा नदीके किनारे पश्चिम भागमें स्थित सिद्धवरकूटसे दो चक्री, दस कामकुमार और साढ़े तीन करोड़ मुनि मोक्षमें गये । मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। पहली गाथामें रेवा नदीके दोनों तटोंसे साढ़े पांच करोड़ मुनियोंका निर्वाण होना बताया है और दूसरी गाथामें केवल पश्चिम तटवर्ती सिद्धवरकूटसे साढ़े तीन करोड़ मुनियोंकी मुक्ति बतलायी है । इसका अर्थ यह हुआ कि रेवा नदीके पूर्वी तटसे दो करोड़ मुनि मुक्त हुए। यहां प्रश्न हो सकता है कि जब पहली गाथामें दोनों तटोंसे मुक्त हुए मुनियोंका उल्लेख कर दिया तो फिर पश्चिम तटसे मुक्त होनेवालोंकी संख्या देनेकी आवश्यकता क्या थी। किन्तु इसके लिए पृथक् गाथा देनेका उद्देश्य हमारी सम्मतिमें यह रहा कि सिद्धवरकूट विख्यात तीथं रहा है, उसकी असाधारण महत्ता थी। अतः उस क्षेत्रकी महत्ता अक्षुण्ण रखने की दृष्टिसे ही उसका पृथक् उल्लेख किया गया। रेवा नदीको वर्तमानमें नर्मदा नदी कहा जाता है। उक्त गाथाओंमें दशमुख राजाके कौन-कौन-से पुत्र रेवा तटसे मुक्त हुए, यह नामोल्लेख नहीं है। 'पद्मपुराण' आदिमें भी उन पुत्रोंका नाम नहीं मिलता जो यहाँसे मुक्त हुए थे। इस गाथामें उल्लिखित सिद्धवरकूट कहाँपर अवस्थित था, यह भी ज्ञात नहीं होता। वस्तुतः अकृत्रिम पर्वतोंके शिखरपर एक सिद्धवरकूट होता है, जहाँसे मुनिजन मुक्ति जाते हैं। विन्ध्याचल पर्वत अकृत्रिम पर्वत तो है नहीं, वह कल्पके अन्तमें नष्ट हो जाता है। इसलिए सिद्धवरकूट यह वस्तुतः क्षेत्रका नाम है। अकृत्रिम पर्वतोंके शिखरपर स्थित उस कूटसे यहाँ सम्भवतः तात्पर्य नहीं है जो तपस्वी मुनियोंके निर्वाण-स्थलके रूप में सिद्धवरकूट कहलाने लगता है। एक स्थान विशेषका नाम है, दूसरा पर्वतके शिखरका नाम है। सिद्धवरक्ट क्षेत्र रेवाके पश्चिम तटपर अवस्थित था, इसके अतिरिक्त अन्य कोई सूचना किसी ग्रन्थमें नहीं मिलती। ऐसा लगता है कि शताब्दियोंसे यह तीर्थ अज्ञात दशामें पड़ा हुआ था। सम्भवतः कोई यात्री भी यहां नहीं आते थे। उपेक्षाके कारण यहाँके मन्दिर जीर्ण-शीर्ण होकर धराशायी होने लगे। यह भी सम्भव है कि किसी धर्मान्ध शासकने इस क्षेत्रको नष्ट कर दिया हो और जनतापर इतने भयानक अत्याचार ढाये हों कि उसके हृदयमें आतंक व्याप्त हो गया हो तथा भयके कारण यहाँकी यात्रा बन्द कर दी हो। धीरे-धीरे जनता इस क्षेत्रका नाम और स्थान आदिके बारेमें भी भूल गयी। ___यह क्षेत्र प्रकाशमें कैसे आया, इसका भी एक रोचक इतिहास है। कार्तिक कृष्णा १४ संवत् १९३५ को इन्दौर पट्टके भट्टारक श्री महेन्द्रकीर्तिजीको स्वप्न आया, जिसमें उन्होंने सिद्धवरकूट क्षेत्रके दर्शन किये। स्वप्नमें देखे हुए स्थानकी खोजके लिए भट्टारकजी दूसरे दिन ही चल दिये और रेवा नदीके तटपर पहुँचकर उन्होंने खोज प्रारम्भ की। वे कुछ लोगोंके साथ रेवाके अर्थात् रेवाके तटपर दक्षिण दिशामें स्थित सिद्धवरकूटसे साढ़े तीन करोड़ मुनि मुक्त हुए । मैं उनको नमस्कार करता हैं। रेवा नदीके तटपर सम्भवनाथ भगवानको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तथा साढ़े तीन करोड़ मुनि मोक्ष गये । मैं उन सबको नमस्कार करता हूँ। - इनमें द्वितीय गाथामें रेवा नदीके तटपर सम्भवनाथ भगवान्को केवलज्ञानकी प्राप्ति बतलायी है। किन्तु 'उत्तरपुराण' पर्व ४९।४०-४१ में उन्हें श्रावस्तीके सहेतुक वनमें केवलज्ञानकी प्राप्ति बतलायी है। ,
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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