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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ दिशामें स्थित चन्द्रपुरी नगरीके राजा चन्द्रकीर्तिसे उसकी छोटी कन्या अभयमती मांगी। किन्तु राजाने अपनी कन्याका विवाह गुरुदत्तके साथ करनेसे इनकार कर दिया। इससे रुष्ट होकर गुरुदत्तने चन्द्रकीर्तिपर आक्रमण कर दिया। अन्तमें चन्द्रकीर्तिको बाध्य होकर अपनी पुत्रीका विवाह गुरुदत्तके साथ करना पड़ा । गुरुदत्त कुछ समय वहीं ठहर गया।
_____एक दिन ग्रामके कुछ लोग गुरुदत्त नरेशके पास आये और हाथ जोड़कर कहने लगे"देव ! द्रोणिमान् पर्वतपर एक व्याघ्रने बड़ा उत्पात कर रखा है। उसने हमारे न केवल गोकुलको, अपितु कई मनुष्योंको भी खा लिया है। आप हमारी रक्षा करें।" प्रजाकी करुण पुकार सुनकर राजा गुरुदत्त सैनिकोंको लेकर द्रोणिमान् पर्वतपर पहँचा। सेनाके कलकलसे घबराकर वह सिंह एक गुफामें घुस गया। उसे मारनेका अन्य कोई उपाय न देखकर सैनिकोंने गुफामें ईन्धन इकट्ठा करके उसमें आग लगा दी। सिंह धुएँ और आगके कारण उसी गुफामें मर गया और मरकर चन्द्रपुरीमें भवधर्म नामक ब्राह्मणके घरमें कपिल नामक पुत्र हुआ।
___ राजा गुरुदत्त अपनी पत्नीको लेकर सैनिकोंके साथ हस्तिनापुर लौट आया और शासन करने लगा। एक बार सात सौ मुनियोंके साथ आचार्य श्रुतसागर नगरके निकट पधारे । उनका उपदेश सुनकर राजा और रानी दोनोंने दीक्षा ले ली। एक दिन मुनि गुरुदत्त विहार करते हुए द्रोणिमान् पर्वतके निकटस्थ चन्द्रपुरी नगरीके बाहर ध्यान लगाये खड़े थे। कपिल अपनी स्त्रीसे मध्याह्न वेलामें भोजन लानेके लिए कहकर खेत जोतने चला गया। उसी खेतमें गुरुदत्त मुनि ध्यानारूढ़ थे । वह खेत पानीसे भरा होनेके कारण जोतने लायक नहीं था। अतः वह दूसरे खेतको जोतने चला गया और मुनिसे कहता गया कि स्त्री भोजन लेकर आयेगी तो उससे कह देना कि मैं दूसरे खेतपर गया हूँ। उसकी स्त्री मध्याह्नमें भोजन लेकर आयी और वहाँ पतिको न पाकर उसने मुनिसे पूछा । किन्तु मुनिने कोई उत्तर नहीं दिया तो वह घर लौट गयी।
सन्ध्या तक कपिल भूखा रहा। भूखके मारे गुस्से में भरा हुआ वह घर लौटा और अपनी स्त्रीको डांटते हुए कहने लगा-"दुष्टे, तुझसे रोटी लानेको कह गया था। तू फिर भी रोटी नहीं लायी। मैं सारे दिन भूखा मरता रहा।" स्त्री भयाक्रान्त होकर बोली-"मैं तो रोटी लेकर गयो थी किन्तु तुम वहाँ मिले ही नहीं। मैंने वहां खड़े हुए नंगे बाबासे भी तुम्हारे बारेमें पूछा लेकिन उसने भी कोई जवाब नहीं दिया तो मैं क्या करती, लौट आयी।"
स्त्रीकी बात सुनकर अज्ञ कपिलको साधुपर क्रोध आया और विचारने लगा-"सारा दोष उस साधुका है। उसीके कारण मुझे भूखा रहना पड़ा। अतः उसे इसका पाठ पढ़ाना चाहिए।" यह विचारकर वह फटे-पुराने कपड़े, तेल और आग लेकर फिर खेतमें पहुंचा। उसने सिरसे पैर तक मुनिराजके शरीरपर चिथड़े लपेट दिये और उनपर तेल छिड़ककर आग लगा दी। आग लगते ही मुनिराजका शरीर जलने लगा। किन्तु वे आत्म-ध्यानमें लीन थे। उन्हें बाह्य शरीरका ज्ञान ही नहीं था। वे शुद्ध भावोंमें लीन रहकर शुक्ल ध्यानमें पहुंच गये। तभी उन्हें लोकालोक-प्रकाशक केवलज्ञान हो गया। चारों निकायके देव गुरुदत्त मुनिराजके केवलज्ञानकी पूजाके लिए वहां आये। योगीश्वर गुरुदत्तका यह चमत्कार और प्रभाव देखकर कपिल ब्राह्मण भयसे कांपता हआ उनके चरणोंमें जा गिरा और क्षमा-याचना करने लगा। वीतराग भगवानको न तो उसके अपराधपर रोष ही था और न उसकी क्षमा याचनापर हर्ष। वे तो रोष-हर्ष आदिसे ऊपर थे। फिर कपिलने भगवान् केवलीके मुखसे उपदेश सुनकर जन्म-जन्मान्तरोंका बैर त्यागकर उन्हींके चरणोंमें दीक्षा ले ली।