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________________ १८० भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ हुई है । इसके दोनों ओर संवत् १५४८ की चार मूर्तियां विराजमान हैं। इसका शिखर बड़ा भव्य एवं विशाल है। __ मन्दिर नं. २५-यह पार्श्वनाथ मन्दिर है । भगवान् पार्श्वनाथकी कृष्ण पाषाणको पद्मासन मूर्ति विराजमान है। इसकी अवगाहना ३ फुट है। मूर्ति-लेखके अनुसार इसका प्रतिष्ठा-काल संवत् १८३७ है । इसके समवसरणमें तीर्थंकरोंको ५ पाषाण-मूर्तियां और हैं । पुरातत्त्व किसी क्षेत्रपर उपलब्ध पुरातत्त्वसे क्षेत्र, मन्दिर और मूर्तिके रचना-काल और इतिहासपर प्रकाश पड़ता है। इस क्षेत्रपर इस प्रकारका कोई पुरातत्त्व मूर्ति, लेख, स्तम्भ आदिके रूपमें नहीं है जिसे अधिक प्राचीन कहा जा सके। यहांकी उल्लेखनीय मूर्तियाँ महावीर और सहस्र-फणवाली पार्श्वनाथकी हैं। किन्तु उनका निर्माण-काल संवत् १८४२ है। संवत् १५४८ की कुछ मूर्तियाँ कई मन्दिरोंमें मिलती हैं, किन्तु वे सब प्रतिष्ठित होकर मडासा.नगरसे आयी हैं, वे इस क्षेत्रपर प्रतिष्ठित नहीं हुईं। उन मूर्तियोंके प्रतिष्ठाकारक शाह जीवराज पापड़ीवाल और प्रतिष्ठाचार्य भट्टारक जिनचन्द्र थे। उनका इस क्षेत्रके साथ कभी कोई सम्पर्क हुआ हो, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता। मन्दिर नं. १५ में मल्लिनाथ स्वामीकी संवत् १४७२ ( ई. स. १४१५) की प्रतिमा विराजमान है। इसमें सन्देह नहीं है कि यह मूर्ति अपने प्रतिष्ठा-कालसे यहां पर विराजमान रही है। अतः यह कहा जा सकता है कि इस स्थानपर ईसाकी १५वीं शताब्दीमें दिगम्बर जैन मन्दिर था। लगता है, प्राचीन कालमें यहाँ कोई नगर रहा होगा। उसी नगरमें यह मन्दिर और मूर्ति रही होगी। इन मूर्तियोंके सिवा और जितनी मूर्तियाँ यहाँ मिलती हैं, वे प्रायः ईसाकी १८वीं-१९वीं शताब्दीकी हैं । इससे ऐसा लगता है कि यहाँके अधिकांश मन्दिरोंका निर्माण इन्हीं शताब्दियोंमें हआ। मन्दिर नं. ६ की भित्ति-मतियां और मन्दिर नं. ११ की खण्डित मतियां सम्भवतः किसी अन्य स्थानसे यहाँ लायी गयी हैं, ऐसा प्रतीत होता है। जिस मन्दिरकी दीवारमें मूर्तियां विराजमान हैं, वह मन्दिर ही १८वीं शताब्दी का है। मन्दिर नं. ११ को खण्डित मूर्तियाँ भी किसी स्थानीय मन्दिरको प्रतीत नहीं होती। अतः यह कहा जा सकता है कि पटनागंजमें मन्दिरोंका निर्माण १५वीं शताब्दीमें होना प्रारम्भ हो गया था, किन्तु उसे अतिशय-क्षेत्रका रूप महावीर मन्दिरके निर्माणके पश्चात् मिला। धर्मशाला क्षेत्रपर मन्दिरोंके सामने एक धर्मशाला है, जिसमें १५ कमरे हैं। रहलीमें भी जैन मन्दिर और धर्मशाला है। यात्रियोंके लिए यहीं ठहरना सुविधाजनक है। क्षेत्रपर बिजली है। जलके लिए कुआँ और नदी है। रहलीके बाजारसे क्षेत्र प्रायः एक मील पड़ता है। नदीके पुलके पश्चात् कुछ मार्ग कच्चा है। वार्षिक मेला यहाँ वार्षिक मेलेकी कोई तिथि निश्चित नहीं है। माघ मासमें कभी भी मेला हो सकता है । नैमित्तिक मेले कई बार विशाल समारोहके साथ हो चुके हैं। एक बार सन् १९४४ में मेला भरा था, जब यहाँ पूज्य गणेश प्रसादजी वर्णी पधारे थे। दूसरी बार सन् १९६८ में एक
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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