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प्रवेश दिगम्बर जैन तीर्थ
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सहित कमल तथा दूसरे हाथमें विकसित कमल लिये हुए पाबंद खड़े हैं। बड़ी मूर्तिके अभिषेक लिए लोकी सीढ़ीकी व्यवस्था है ।
बड़ी मूर्ति दोनों ओर विक्रम संवत् १८४२ की मूर्तियाँ विराजमान हैं । दायीं ओर ऋषभदेव और बायीं ओर सम्भवनाथको मूर्तियाँ हैं और दोनों ही संगमूसा हैं । उसमें सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथकी मूर्तियाँ विराजमान हैं । ओर एक दीवार में महावीर और पार्श्वनाथकी पद्मासन मूर्तियां हैं। दोनोंका ही वर्णं सलेटी है। महावीरकी मूर्ति संवत् १८५६ की है। दायीं ओर वेदी है । उसमें वेदीके बाहर १ फुट ७ इंच ऊँची तीर्थंकर - मूर्ति विराजमान है ।
ओर एक वेदी है ।
इस मन्दिर के द्वारपर बने हुए द्वारपालोंकी बगलमें पार्श्वनाथकी दो मूर्तियाँ विराजमान हैं । बायीं ओरकी मूर्तिके सप्त फण हैं तथा दायीं ओरकी मूर्ति नौ फणयुक्त है ।
इस क्षेत्रपर बड़ा मन्दिर यही कहलाता है । 'बड़ेदेव' के कारण ही यह क्षेत्र अतिशय क्षेत्र कहलाता है । यहाँ स्त्रियाँ अपनी गोद भरनेकी कामना लेकर आती हैं और पुरुष अन्य सांसारिक मनौतियाँ मनाते हैं । उनकी भक्तिकी मात्रापर उनकी कामनाकी सिद्धि निर्भर करती है ।
मन्दिर नं. २३ - यह पार्श्वनाथ मन्दिर कहलाता है । यह यहाँका विख्यात और दर्शनीय मन्दिर है । यहाँ सहस्रफणयुक्त पार्श्वनाथ विराजमान हैं। उनके सहस्र फणोंकी रचना अद्भुत और अनुपम है । फण-मण्डप सिर तथा दोनों भुजाओंको आवृत किये हुए हैं। फणावली अन्य मूर्तियों के समान नहीं है, उनसे भिन्न । मूर्तिके सिर और भुजाओंको तीन ओरसे घेरे हुए पाषाण - मण्डपमें १००० सर्पंफणोंका कलात्मक अंकन है । मूर्ति कृष्णवर्ण और पद्मासन है । ४ फुट ४ इंच ऊँची और २ फुट ८ इंच चौड़ी है । इसका प्रतिष्ठा-संवत् १८४२ है ।
इसके आगे निचाईपर एक अन्य पार्श्वनाथ- मूर्ति विराजमान है । यह भी कृष्णवणं और पद्मासन है । इसकी माप ४ फुट ४ इंच x २ फुट ७ इंच है। बना हुआ सर्पफण-मण्डप विशाल है और वह केवल सिरमें ऊपर ही तना हुआ अपने प्रकारका एक ही है ।
सहस्र - फणवाली, इसके सिरके ऊपर है । किन्तु यह भी
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मूलनायक के दोनों ओर पार्श्वनाथकी नौ फणावलीसहित दो पद्मासन मूर्तियां विराजमान हैं। उपर्युक्त सभी मूर्तियां संवत् १८४२ को प्रतिष्ठित हैं । उसी संवत्को प्रतिष्ठित १२ मूर्तियाँ इस वेदीपर और विराजमान हैं। तीन मूर्तियाँ संवत् १५४८ की जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित विराजमान हैं । पापड़ीवालने ये मूर्तियाँ प्रतिष्ठित कराकर यहाँ भिजवायी थीं । उन्होंने अनेक मन्दिरोंमें इस प्रकार प्रतिष्ठित मूर्तियाँ भेजकर विराजमान करायी थीं । स्थान-स्थानपर उनकी मूर्तियाँ अब भी उपलब्ध होती हैं ।
इन सभी मूर्तियों की प्रतिष्ठा भट्टारक जिनचन्द्र के द्वारा हुई थी । ये बलात्कारगणकी दिल्लीजयपुर - शाखाके थे । इनका भट्टारक-काल संवत् १५०७ से १५७१ है । इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ भारत के कोने-कोने में मिलती हैं। सिर्फ नागपुरके जैन मन्दिरोंमें ही इनकी संख्या १०० से ऊपर है ।
इस मन्दिरके आगे एक मण्डपमें तीन छतरियाँ बनी हुई हैं। सम्भवतः इनका निर्माण चरण विराजमान करने के लिए किया गया था, किन्तु आजकल ये खाली हैं ।
मन्दिर नं. २४ – एक बड़ी वेदीपर भगवान् पार्श्वनाथकी श्वेतवर्णं पद्मासन मूर्ति विराजमान है । यह ११ फणोंसे मण्डित है । इसकी अवगाहना ४ फुट है और संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित