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________________ मध्यप्रदेशके विगम्बर जैन तीर्थ २४२ परिग्रहसे रहित होकर पद्मासन मुद्रामें ध्यानावस्थित थे। उनके नेत्र ध्यानावस्थामें अर्धोन्मीलित थे, दृष्टिनासाके अग्रभागपर स्थिर थी और परम शुक्ल ध्यान द्वारा घातिया कर्मोंका नाश करके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तसुखरूप अनन्त चतुष्टय प्राप्त कर अर्हन्त परमेष्ठी हुए। अष्ट प्रातिहार्ययुक्त उसी अवस्थाकी यह मूर्ति है। प्रतिमाकी फणावलीके दोनों पार्यो में दो गज हैं। उनमें नीचे दो पुरुष खड़े हैं । बायीं ओरके पुरुषके हाथमें माला है। दायीं ओरके पुरुषके हाथमें कुछ नहीं है। उनसे नीचे दोनों पार्यों में चमरवाहक नागेन्द्र खड़े हुए हैं। ये सभी काली पालिशसे रंगे हुए हैं। इन्हें किन्हीं अनाड़ी हाथोंने गढ़ा है। लगता है भगवान्का यह सम्पूर्ण परिकर बादमें निर्मित हुआ है। इस मूतिपर कोई लेख या लांछन नहीं है। सफण-मण्डलके कारण पाश्वनाथकी पहचान हो जाती है । जब यह प्रतिमा भूगर्भसे निकाली गयो, तब चरण-चौकी भूगर्भ में ही दबी रह गयी। अतः यह किस कालमें निर्मित हुई, इसका कोई प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। लोग भक्तिवश इसे चतुर्थ कालकी अर्थात् ईसा पूर्व छठी-सातवीं शताब्दीकी कहते हैं। पालिशके कारण इसके पाषाणकी भी परीक्षा नहीं हो सकती। साहित्यिक साक्ष्यके आधारपर देखें तो मदनकीर्ति यतिवर की 'शासनचतुस्त्रिशिका' और 'विविधतीर्थकल्प' में या उनसे पूर्ववर्ती किसी ग्रन्थमें इस प्रतिमाकी चर्चा नहीं मिलती। सम्भव है, यह परमार कालकी रचना हो। यदि यह अनुमान सत्य हो तो यह स्वीकार करना होगा कि अपने प्रारम्भिक कालमें यह विशेष प्रसिद्ध नहीं थी। मुस्लिम कालमें इसका मन्दिर तोड़ दिया गया या टूटकर गिर गया होगा और यह प्रतिमा मन्दिरके अवशेषोंमें दब गयी होगी। जब भूगर्भसे निकालकर विराजमान किया गया, तब इसके चमत्कारोंका सौरभ बिखरा। मूल वेदीके दायें और बायें पार्श्वमें एक-एक वेदी है, जो चबूतरेनुमा है। बायीं ओरकी वेदीपर कृष्णवर्णके पार्श्वनाथ विराजमान हैं। दायीं ओरकी वेदीपर नेमिनाथ स्वामीकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। मूलतः यह प्रतिमा श्वेत पाषाणकी है, किन्तु किन्हीं लोगोंने काला लेप लगाकर इसे कृष्ण वर्णकी बना दी है। इसके दोनों पार्यों में दो खड्गासन तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं। ये सभी मूर्तियाँ दिगम्बर आम्नायकी हैं। इस वेदोपर सप्त धातुको चन्द्रप्रभ स्वामीकी एक प्रतिमा विराजमान है। उसका मूर्तिलेख निम्न भांति पढ़ा गया है_ विक्रम संवत् १८९९ वर्षे मार्गशीर्ष शुक्लपक्षे ११ बुधवारे श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये....टीकमगढ़ निवासी चौधरी लक्ष्मणस्तस्य भ्राता....प्राणसुखस्तेन प्रतिमेयं श्री क्षेत्र मक्सीमध्ये प्रतिष्ठिता'। टीकमगढ़ निवासी चौधरी लक्ष्मणदास प्राणसुखदासने यहाँके छोटे मन्दिरका निर्माण किया था और उसमें मूलनायक सुपाश्वनाथ विराजमान किये थे। इसपर भी वही लेख अंकित है। ये दिगम्बर धर्मानुयायी श्रावक थे। टीकमगढ़में उनके वंशज अब तक विद्यमान हैं। __ सभामण्डपमें चक्रेश्वरी और पद्मावतीकी मूर्तियां हैं। चक्रेश्वरीको एक मूर्ति ताकमें है जिसके ऊपरी भागपर आदिनाथ भगवानकी दिगम्बर प्रतिमा विराजमान है। इस मन्दिरके सिरदलपर मध्यमें नेमिनाथ तथा इधर-उधर खड्गासन दिगम्बर मूर्तियाँ बनी हुई हैं। बड़े मन्दिरकी पलिमा ( परिक्रमा ) में ४२ देहरियां ( छोटे देवालय ) बनी हुई हैं। इनमें ४ देहरियां खाली खड़ी हुई हैं। इनमें जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां विराजमान हैं। सेठ जीवराज पापड़ीवाल एक धर्मात्मा दिगम्बर श्रावक थे। उन्होंने विक्रम संवत् १५४८ वैशाख सुदी ३ को सैकड़ों-हजारों मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करायी। प्रतिष्ठाचार्य थे भट्टारक जिनचन्द्र । ३-३२
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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