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________________ २५० भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ उन्होंने मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा कराके गाड़ियोंमें उन्हें भरवाकर विभिन्न स्थानोंके मन्दिरोंको भेज दिया। यही कारण है कि उत्तर भारतका तो शायद ही कोई मन्दिर ऐसा होगा जिसमें जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित मूर्ति विराजमान न हो। प्रायः उनकी सभी मूर्तियोंपर लेख रहता है। यह मूर्ति-लेख बहुधा निम्न प्रकारका या इससे मिलता-जुलता रहता है. 'संवत् १५४८ वैशाख सुदि ३ श्रीमूलसंघे भट्टारक जिनचन्द्रदेव साहु जीवराज पापड़ीवाल नित्यं प्रणमति सौख्यं शहर मुड़ासा श्री राजस्य सिंह रावल ।' भट्टारक जिनचन्द्र दिगम्बर परम्परामें बलात्कारगणकी दिल्ली-जयपुर शाखाके भट्टारक थे। वे भट्टारक शुभचन्द्र (सं. १४५०-१५०७ ) के शिष्य थे। इनका भट्टारक काल संवत् १५०७ से १५७१ तक माना जाता है। आपने अपने जीवन-कालमें अनेक मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करायी। यहांको सभी देहरियोंमें सेठ जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां विराजमान हैं। अतः ऐसा लगता है कि देहरियोंकी प्रतिष्ठा पापड़ीवालने ही करायी थी और इन प्रतिमाओंको यहां विराजमान किया था। यदि यह मान लिया जाये कि पापड़ीवालने देहरियोंको प्रतिष्ठा नहीं करायी, तब भी यह तो स्वीकार करना ही होगा कि मूलतः यह मन्दिर दिगम्बर परम्पराका था। इसलिए श्री पापड़ीवालने यहां मूर्तियां भिजवायीं क्योंकि उन्होंने किसी श्वेताम्बर मन्दिरमें मूर्तियां नहीं भिजवायी थीं। - देहरी नं. ३९ में नन्दीश्वर द्वीपकी रचना है। इसमें ५२ प्रतिमाएं हैं। इनमें ४४ प्रतिमाएं खड्गासन हैं, शेष पद्मासन हैं और दिगम्बर हैं। नन्दीश्वर द्वीपको यह रचना दिगम्बर परम्पराके अनुसार है । श्वेताम्बर परम्परामें तो इस प्रकारकी नन्दीश्वर रचना कहीं नहीं मिलती। __ बड़े मन्दिरमें एक शिलालेख ( नं. १ ) है, जिसमें उल्लेख है कि इस मन्दिरका निर्माण संग्रामसिंह सोनोने संवत् १४७२ में कराया जो माण्डवगढ़के सुलतान महमूद खिलजीका खजांची था। मूर्तिको प्रतिष्ठा संवत् १५१८ में की गयी। शिलालेखपर संवत् १६६७ उत्कीर्ण है। किन्तु शिलालेखकी लिपिके आधारपर यह शिलालेख अति आधुनिक प्रतीत होता है। प्राचीन संवत् डालकर नये शिलालेख बनवाने और उनसे अपने पक्षकी पुष्टि करनेका इतिहास पुराना है। बड़े मन्दिरसे दक्षिणकी ओर इस अहातेमें ऊंचे चबूतरेपर छोटा मन्दिर है। यह सुपावनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर कहलाता है। इस मन्दिरमें गर्भालय तथा महामण्डप बना हुआ है। गर्भालयमें भगवान् सुपाश्वनाथकी कृष्ण वर्ण पद्मासन मूर्ति विराजमान है। इसकी अवगाहना २ फुट ६ इंच है तथा इसकी प्रतिष्ठा संवत् १८९९ में हुई। प्रतिमा चौरस वेदीमें विराजमान है। इस मन्दिर और मूर्तिकी प्रतिष्ठा टीकमगढ़ निवासी सेठ लक्ष्मणदास प्राणसुखदासने करायी थी, जिन्होंने बड़े मन्दिरको चन्द्रप्रभ भगवान्की धातु-मूर्तिकी प्रतिष्ठा करायी। सुपार्श्वनाथकी प्रतिष्ठाके साथ ही चन्द्रप्रभको भी प्रतिष्ठा हुई थी। उन्होंने एक मूर्ति छोटे मन्दिरमें मूलनायकके रूपमें विराजमान कर दी और धातु-मूर्ति बड़े मन्दिर में। बड़ा मन्दिर तब तक दिगम्बर परम्पराका मान्य मन्दिर था और दिगम्बर समाजके ही अधिकारमें था। मूलनायक भगवान् सुपार्श्वनाथके दोनों पार्यो में महावीर और सुपार्श्वनाथकी मूगिया वर्णकी पद्मासन मूर्तियां विराजमान हैं । इनकी अवगाहना १ फुट ८ इंच है। इसके आगेको कटनीपर भ. पाश्वनाथकी १ फुट ४ इंच उन्नत संवत् १५४८ की तथा भ. आदिनाथको १ फुट २ इंच ऊंची लेखरहित तथा दो धातु-मूर्तियां एक पार्श्वनाथ २ फुट २ इंच तथा चौबीसो १ फुट ८ इंच विराजमान हैं।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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