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________________ (२२८ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ का मिला है। अतः गयकर्णका राज्य शासन ई. सन् ११५६ से पूर्व ही समाप्त हो चुका था। इसे हम तीन वर्ष पूर्व स्वीकार कर लें तो गयकर्णको मृत्यु ई. सन् ११५३ के आसपास हो चुकी थी। जबकि बहोरीबन्दके मूर्तिलेखमें विक्रम संवत् १०१० माननेपर तो ई. सन् ९५३ में इस मूर्तिकी प्रतिष्ठा माननी पड़ेगी। उस समय तो गयकर्ण उत्पन्न भी नहीं हुआ था। अतः मूर्तिलेखों, ताम्रलेखों और समकालीन राजाओंके कालका सामंजस्य करते हुए इस मूर्तिलेखका काल शक संवत् १०७० उपयुक्त लगता है। क्षेत्र-दर्शन गांवमें पुलिस स्टेशनसे आगे बाजारमें एक अहातेके अन्दर मन्दिर और धर्मशाला हैं । मन्दिरका निर्माण चालू है। एक महामण्डप बना है जो ४०४३० फुट है और इसकी ऊंचाई २० है। इसके मध्य में भगवान शान्तिनाथकी मति विराजमान है। उसके आसनकी करसी बनायी जा रही है । मूर्ति अस्थायी रूपसे खड़ी कर दी गयी है । मूर्तिका वर्ण सलेटी है। इसकी अवगाहना १३ फुट ९ इंच है तथा आसनसहित यह १५ फुट ६ इंच ऊँची है । न जाने कितने वर्षों या शताब्दियोंसे यह प्रतिमा खुलेमें मिट्टीमें पड़ी हुई थी। अतः इसकी पालिश उतर गयी है। इससे मुख ही नहीं, शरीरका लावण्य और स्निग्धता जाती रही है। यदि इसके ऊपर पुनः पालिश हो जाये तो इसका सौन्दर्य सहस्र गुना बढ़ जाये। ____इस मूर्तिके परिकरमें छत्र और गजवाला भाग टूट गया है। वह अलग रखा हुआ है। शीर्षके दोनों पाश्वोंमें देवियाँ पारिजात पुष्पोंकी माला लिये हुए गगनमें विहार कर रही हैं। चरणोंके पास सौधर्म और ऐशान इन्द्र हाथमें चमर लिये हुए भगवान्की सेवामें खड़े हैं। चरणोंके निकट दोनों ओर कर-बद्ध मुद्रामें भक्त बैठे हैं। चरण-चौकीपर शान्तिनाथका लांछन हरिण अंकित है। भूमिके उत्खननके फलस्वरूप कुछ मूर्तियां निकली थीं। उनमें से कुछ मन्दिरमें और कुछ बाहर रखी हुई हैं। इन मूर्तियोंकी कुल संख्या १६ है । ये सभी सलेटी वर्णकी हैं। सभी मूर्तियां तीर्थंकरोंकी हैं। केवल एक मूर्ति अम्बिकाकी है। एक तीर्थंकर-मूर्ति निकटवर्ती कमरेमें रखी हुई है । इसकी अवगाहना ५ फुट ६ इंच है। - धर्मशालाके एक कमरेमें नवीन मूर्तियां विराजमान हैं, जिससे यात्रियोंको दर्शन-पूजनकी सुविधा रहे। मूर्तियोंमें मूलनायक हैं भगवान् ऋषभदेव । इनकी प्रतिमा श्वेत वर्ण की है और पद्मासन है। यहाँके समवसरणमें २ पाषाणकी और ११ धातुकी प्रतिमाएं विराजमान हैं। गांवमें एक मकानके निकट एक तीर्थंकर-मूर्ति पड़ी हुई है। मन्दिरसे लगभग २-३ फलांग दूर तालाबके किनारे एक वृक्षके नीचे ७ फुट लम्बे एक शिलाफलकमें नाग-शय्यापर लेटी हुई एक स्त्रीको मूर्ति उत्कीर्ण है । उसके सिरके ऊपर फण-मण्डप तना हुआ है। देवी उसकी सेवामें रत हैं। प्रतीत होता है, यह मति पद्मावती देवीकी है। इस तालाबके चारों और पक्के घाट बने हए थे जो आजकल भग्न दशामें अपने प्राचीन वैभवका स्मरण करके आंसू बहा रहे हैं। तालाबके निकट जीर्ण-शीर्ण दशामें कई मन्दिर एवं कमरे खड़े हुए हैं। प्राचीन कालमें सम्भवतः ये जेन मन्दिर थे। इनके निकट प्राचीन कुआं भी बना हुआ है। . . . क्षेत्रपर जो मूर्तियां भूगर्भसे निकली हैं वे १२वीं-१३वीं शताब्दी कलचुरि-कालीन प्रतीत होती हैं। इन मूर्तियोंसे यह भी अनुमान होता है कि यहाँ तथा इसके आसपासमें एकाधिक जैन मन्दिर रहे होंगे। . .
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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