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________________ 'मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ -२२९ अतिशय क्षेत्र यहां और इसके आसपासमें जो जैन पुरातत्त्व बिखरा हुआ है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह स्थान एक तीर्थक्षेत्रके रूपमें मान्य रहा है। यह तीर्थक्षेत्र रहा है, इसकी एक और भी करुण कहानी है। यहां कभी जंगल था, जहाँ आज जैन क्षेत्र है। यहां एक विशाल पाषाण-मूर्ति पड़ी हई थी। ग्रामकी अशिक्षित जनता जादू-टोने में अधिक विश्वास करती थी। कभी किसीको इकतरा, तिजोरी या चौथिया (एक प्रकारके बुखार जो सर्दी देकर प्रतिदिन या कुछ दिनके अन्तरालसे आते हैं ) आता तो इस मूर्तिके पास बिना किसीके टोके, मुंह अंधेरे जाता और मूर्तिको दो-एक बार जूते मारता, झाडू मारता, बस फिर बुखार लौटकर नहीं आता ऐसा था जनताका विश्वास । देहातोंमें आज भी ऐसे विश्वास मौजूद हैं । उक्त बुखारका कोई रोगी अलख सुबह जाकर किसी पीपल या करील या अकोअरके पेड़से लिपटकर मिलता है तो कोई चूल्हे और चक्कीसे । टोटकेके लिए जाते हुए रोगीको राहमें किसीने टोक दिया तो बुखार उस रोगीको छोड़कर टोकनेवालेको धर दबोचेगा। ऐसे हैं देहातके लोगोंके विश्वास । इस मूर्तिको लोग खनुआदेव कहते आये हैं। खनुआदेव नाम क्यों पड़ा इनका भी इतिहास है। श्री कनिंघमने इस सम्बन्धमें बताया है कि "लोग इस मूर्तिको 'कनुआदेव' कहते हैं। राजा गयकर्ण देवके एक पुत्रका नाम 'कुनुआदेव' था। यहां बड़े सरोवरके किनारे बने हुए एक समाधिस्तम्भपर यह लेख उत्कीर्ण है-'महाराज पुत्र श्री कनआदेव' । सम्भवतः बहोरीबन्द उसकी जागीर थी। वह यहीं मरा और उसका स्मारक बनाया गया। जब मन्दिर नष्ट हो गया, लोग इस मूर्तिको भी भूल गये, उस समय वहाँके निवासियोंकी यह धारणा बन गयी कि यह मूर्ति वहाँके स्वर्गीय राजपुत्रकी मूर्ति है।" जब जैन समाजको ज्ञात हुआ कि उनके सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथके साथ ग्रामीण जनता इस प्रकारका अपमानजनक व्यवहार करती है तो उसने प्रयत्न करके भारत सरकार और पुरातत्त्व विभागसे यह मूर्ति अपने अधिकारमें ले ली । मूर्तिको आतपवर्षा आदिसे सुरक्षित रखनेके लिए अब वहां मन्दिर बनाया जा रहा है। जेनेतर लोग अब भी इसे 'खनुआदेव' मानते हैं और ग्रामके रक्षक-देवके रूपमें इनकी पूजा करते हैं। किन्तु अब पूजाका वह प्राचीन रूप बदल गया है। अब तो स्त्री-पुरुष आकर भगवान्के सामने मनौती मानते हैं और उनकी कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। इस प्रकार शान्तिनाथ प्रभुके चमत्कारोंकी कहानी इधरके लोगोंके मुखसे प्रायः सुननेको मिलती हैं । अब धीरे-धीरे यह स्थान सही अर्थों में अतिशय-क्षेत्र बन गया है। धर्मशालाएं क्षेत्रपर अभी एक धर्मशाला बनी है, जिसमें छह कमरे हैं। क्षेत्रपर बिजलीकी सुविधा है। जलके लिए कुएंकी व्यवस्था है । क्षेत्रका अभी नवनिर्माण हो रहा है। अतः अधिक सुविधा सम्पन्न बननेमें क्षेत्रको समय लग सकता है। व्यवस्था मेलेके अवसरपर यहां एक प्रबन्धकारिणी समितिका निर्वाचन होता है। क्षेत्रकी सम्पूर्ण व्यवस्था उसी समितिके अन्तर्गत है।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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