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भारतके दिगम्बर जैन ती मूर्ति थी, जिसकी मान्यता सम्पूर्ण अवन्ति जनपदमें थी और जो अवन्ति देशकी राष्ट्रीय देव-मूर्तिके उच्चासनपर प्रतिष्ठित थी। जिस प्रकार कलिंग देशमें लगभग २२०० वर्ष पूर्व भगवान् ऋषभदेवकी एक मूतिको 'कलिंग जिन' कहा जाता था। उस मूर्तिको कई शताब्दी तक राष्ट्रीय देव-मूर्तिके रूपमें सम्पूर्ण कलिंगवासी अपनी आराध्य मूर्ति मानते रहे। लगता है कि यही ख्याति और स्थिति अवन्ति देशमें अवन्ति शान्तिनाथकी मूर्तिकी भी रही होगी। अवन्ति देशका केन्द्रस्थान होनेके कारण सम्भवतः अवन्ति शान्तिनाथकी यह मूर्ति उज्जयिनीमें ही रही होगी।
भट्टारक सुमतिसागरकी ये दोनों सूचनाएं-चिन्तामणि पाश्वनाथ और अवन्ति शान्तिनाथ-अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इन दोनों अतिशय सम्पन्न प्रतिमाओंका इतिहास क्या है तथा वर्तमानमें वे कहां हैं, यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका।
भट्टारक ज्ञानसागरजी सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दीके विद्वान् हैं। उन्होंने 'सर्वतीर्थवन्दना' लिखी है, जिसमें १०१ छप्पय हैं । इस रचनामें कविने उज्जयिनीके सम्बन्धमें इस प्रकार लिखा है
'उज्जैनीपुर सार देश मालव मुखमण्डन । पार्श्वदेव जिनराय पाप मिथ्यामति खण्डन । सिद्धसेन मुनिराय तेन महियल प्रगटायो विक्रम नरपति सार सुद्ध सभक्ति गुण पायो॥ मन-वच-काया सुद्ध करी जिनपद सेवत जगपति ।
अवन्ति पावं जिन वंदिये कहत ज्ञानसागर यति ॥८२।। अर्थात् उज्जयिनीमें पार्श्वनाथ मन्दिर था। आचार्य सिद्धसेनने पाश्वनाथको मूर्ति प्रकटकरके विक्रम नरेशको धर्मनिष्ठ बनाया था। राजाने मन-वचन-कायकी शुद्धिके साथ उस 'अवन्ति पार्श्वनाथ' की पूजा को।
ऐसा प्रतीत होता है, भट्टारक सुमतिसागरके चिन्तामणि पार्श्वनाथ और भट्टारक ज्ञानसागरके अवन्तिपाश्वनाथ दोनों एक ही हैं। सम्भव है, आचार्य सिद्धसेनने पार्श्वनाथको मूर्तिको प्रकट करके जब विक्रमादित्य नरेशको प्रभावित किया और विक्रमादित्य नरेशने श्रद्धा-भक्तिके साथ उस मूर्तिकी पूजा की तो वह मूर्ति सारे देशमें विशेषतः अवन्ति देशमें सर्वसाधारणको श्रद्धाभाजन बन गयी और उसे 'अवन्ति पाश्वनाथ' कहा जाने लगा। पश्चात् इसीका नाम 'चिन्तामणि पाश्वनाथ' हो गया। यदि हमारी यह मान्यता सही हो तो मानना होगा कि ईसाकी चौथी शताब्दीमें इस मूर्तिकी प्रदेशव्यापी प्रतिष्ठा थी। इसके बाद कई शताब्दियों तक यह प्रतिष्ठा बनी रही।
सत्रहवीं शताब्दीके विद्वान् भट्टारक जयसागरने गुजराती मिश्रित हिन्दीमें 'तीर्थ-जयमाला' नामक लघु रचना लिखी है। उसमें कविने उज्जयिनीके 'अवन्ति पाश्वनाथ का वर्णन किया है। यथा 'सुडजेणीय पास अवंतीय धोर।' इससे ज्ञात होता है कि पार्श्वनाथकी वह विख्यात मूर्ति ही 'अवन्ति पार्श्वनाथ' कहलाती थी।
उन्नीसवीं शताब्दीके भट्टारक ब्रह्महर्षने संस्कृत-हिन्दी मिश्रित भाषामें 'पाश्वनाथ-जयमाला' लिखी है। उसमें एक स्थानपर उन्होंने उज्जयिनीके 'अवन्ति पार्श्वनाथ' को भी वन्दना की है। मूलपाठ इस प्रकार है-'तवनिधि पास अवंति उजेन ।'
___ इन उपयुक्त प्रमाणोंसे सिद्ध होता है कि यहां भगवान् पार्श्वनाथकी एक मूर्तिको लोकमान्यता प्राप्त थी। उसे ही 'अवन्ति पाश्वनाथ' कहा जाता था और उसीका नाम 'चिन्तामणि पाश्वनाथ' था।