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मध्यप्रदेशके विनम्बर जैन तीर्थ
२६५ उससे पूछा-तुम यहाँ भोजन नहीं करते, घर जाकर करते हो, क्या बात है ? श्रावक बोलाबन्धुवर ! मैं जबतक जिनेन्द्र भगवान्का पूजन देख न लूं या स्वयं पूजन न कर लूं, तबतक भोजन नहीं करता। भील बोले-अगर ये बात है तो हम आपको आपके भगवान् दिखाते हैं। तब वे भील मूर्तिखण्डोंको उठा लाये। श्रावकने उन्हें जोड़कर यथास्थान लगाया और उसके दर्शन किये। फिर वह उनके दर्शन करके वहीं भोजन करने लगा। एक दिन भीलोंने कुछ द्रव्य ऐंठनेके अभिप्रायसे वे मूर्तिखण्ड छिपा दिये । श्रावक बिना दर्शन किये भोजन कैसे करता। उसे इस तरह तीन उपवास करने पड़े। तब भीलोंने कहा-अगर आप हमें गुड़ दें तो हम आपको मूर्ति दिखा सकते हैं। श्रावकने गुड़ बांटना स्वीकार कर लिया। भीलोंने भूति खण्ड जोड़कर बताये । श्रावकने उन्हें खण्डोंको जोड़ते हुए देख लिया। इससे श्रावकके मनमें बड़ा विषाद हुआ और उसने प्रतिज्ञा की कि जबतक इस मूर्तिको मैं अखण्ड नहीं देख लूंगा तबतक मेरे आहारजलका त्याग है। इस तरह उपवास करते हुए उसे कई दिन व्यतीत हो गये, तब उसे स्वप्नमें एक देवने बताया कि चन्दनका लेप करनेपर यह मूर्ति अखण्ड हो जायेगी। प्रातः होनेपर श्रावकने उसी प्रकार किया और वह मूर्ति अखण्ड हो गयी। सब सन्धियां मिल गयीं। तब उसने भक्तिपूर्वक भगवान्की पूजा की और अपना उपवास खोला। उसने हर्षपूर्वक भीलोंको गुड़ बांटा । फिर उसने एक पीपलके वृक्षके नीचे वेदी बनाकर उस मूर्तिकी वहाँ स्थापना कर दी। तबसे लोग देशदेशान्तरोंसे वहाँ दर्शनोंके लिए आने लगे।
प्राग्वाट वंशके थेहके पुत्र हालाकके कोई सन्तान नहीं थी। उसने यहां आकर मनौती मनायो-“यदि मेरे पुत्र उत्पन्न हो जाये तो मैं यहां मन्दिर निर्माण करा दूंगा।" देव-पूजाके पुण्यसे उसके कामदेव नामक पत्र उत्पन्न हो गया। उसने यहाँ शिखरबन्द मन्दिर बनवाया। प्रकार एक भीलने मूर्तिके सामने अपनी अंगुली काटकर चढ़ा दी। भगवान्का चन्दन लगानेपर नयी अंगुली निकल आयी। मालव नरेश जयसिंह देव भगवान्के इन अतिशयोंको सुनकर यहां आया और उसने भगवान्की पूजा की। उसने यहाँके भट्टारकको देव-पूजाके लिए चौबीस हलसे जोतने योग्य भूमि प्रदान की तथा पुजारियोंके लिए बारह हलोंसे जोतने योग्य भूमि दान की।
धर्म धारण किया, अपना संवत्सर चलाया, कई जिनायतन बनवाये। उसके पांच सौ सामन्तोंने भी अपने-अपने नामसे जिनायतन निर्मित कराये। . इन विवरणोंसे ज्ञात होता है कि ईसाकी प्रथम-द्वितीय शताब्दीसे चौदहवीं शताब्दी तक तो मंगलपुरके अभिनन्दननाथकी ख्याति निश्चित रूपसे रही है। किन्तु इसके पश्चात् इस सम्बन्धमें कोई उल्लेख देखनेमें नहीं आया। वर्तमानमें मंगलपुर कहां है और क्या वहां अब भी अभिनन्दन जिनकी वह सातिशय मूर्ति विद्यमान है ? सम्भव है, उज्जयिनीके बाह्य उद्यान में यह मन्दिर और मूर्ति रही होगी।
परवर्ती जैन साहित्यमें उज्जयिनी-ईसाकी पन्द्रहवीं शताब्दीके पश्चात् तीर्थ सम्बन्धी पर्याप्त साहित्य विभिन्न देशी भाषाओंमें लिखा गया है। सोलहवीं शताब्दीके विद्वान् भट्टारक सुमतिसागरने 'तीर्थ-जयमाला' नामक लघु रचनामें उज्जयिनीके 'चिन्तामणि पार्श्वनाथ' की वन्दना की है। उन्होंने इस सम्बन्धमें विशेष विवरण तो नहीं दिया, केवल इतना ही लिखा है'सुचिन्तामणि उज्जैनी धीर'। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनके कालमें यहाँपर चिन्तामणि पाश्र्वनाथकी कोई सातिशय प्रतिमा रही होगी, जिसकी मान्यता सुदूर तक होगी। . उन्होंने 'सुशान्ति अवन्तिराम सुधार' इस छन्दांश द्वारा अवन्ति. शान्तिनाथकी भी सूचना दी है । 'अवन्ति शान्तिनाथ' इस नामसे ऐसा ज्ञात होता है कि शान्तिनाथ भगवान्की कोई ऐसी
उसने जैन धर्म धारण किया,