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________________ २६२ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ थी, जो बादमें उज्जयिनीके नामसे प्रसिद्ध हुई। अवन्तिकाका वैभव स्वर्गकी अमरावतीसे तुलनीय था। इसलिए उसका एक नाम अमरावती भी था। : कथाकोष ( मराठी ) में बताया है कि उज्जयिनी नगरी रम्य एवं विशाल जिन-मन्दिरों, राजमार्गों और उत्तुंग प्रासादोंसे परिपूर्ण थी। वहाँके उद्यान आकर्षक थे। वहाँके व्यापारिक पेठों (बाजारों) के कारण दूरदूरके व्यापारी वहां आया करते थे। महाकवि पुष्पदन्त कृत 'जसहरचरिउ' में लिखा है कि अवन्ति देशमें स्वर्गपुरीके समान उज्जयिनी नगरी है। उस नगरमें मरकत मणियोंको किरणोंसे व्याप्त, हरित पृथ्वीतलमें मूढ़-बुद्धि हाथी घास और मधुरसकी इच्छासे अपनी सूंड चलाते हुए मन्द गमन करते हैं। वहाँके हम्यों में चन्द्रकान्त मणियोंकी प्रभा चमचमाती है। वहाँकी महिलाएं सुशील और पतिपरायणा हैं। वहाँ बड़े-बड़े भवनोंमें रत्नजड़ित क्यारियोंमें सुगन्धित पुष्प सौरभ विकीणं करते रहते हैं। वहाँ कोई उपद्रव नहीं है। 'करकण्डुचरिउ' में उज्जयिनीको धन-धान्यसे अत्यन्त समृद्ध बताया है। तमिल साहित्यका जैन महाकाव्य 'सिलप्पदिकारम्' आदि संगम कालकी रचना है। उसमें लिखा है कि अवन्तिनरेशने उज्जयिनीमें चोलराजका स्वागत मणिमुक्ताखचित स्वर्णमय तोरणद्वार बनाकर किया था। जिसका शिल्पचातुर्य दर्शनीय था। . अभिनन्दन जिनको सातिशय मति-प्राकृत निर्वाण भक्तिमें 'पासं तह अहिणंदण णायदहि मंगलाउरे वंदे' गाथा द्वारा मंगलापुरके अभिनन्दननाथकी वन्दना की गयी है, जिससे ज्ञात होता है कि यह स्थान अतिशय क्षेत्र रहा है। . मंगलापुरके इसी अभिनन्दननाथ जिनके सम्बन्धमें यति मदनकीतिने 'शासन चतुस्त्रिशिका' में एक अलग पद्य संख्या ३४ द्वारा उल्लेख किया है। उसका आशय यह है• "मालवा देशके मंगलपुर नगरमें म्लेच्छोंके द्वारा, जो अपने प्रभावको फैलाते हुए वहाँ पहुंचे, श्री अभिनन्दन जिनेन्द्रकी मूर्ति जब तोड़ दी गयी तो वह पुनः जुड़ गयी और पूर्ण अवयव विशिष्ट हो गयी । बादमें उसके प्रभावसे नाना उपद्रव दूर हुए। वे प्रभावयुक्त श्री अभिनन्दन प्रभु दिगम्बर शासनको सुदृढ़ करें।" । ___मंगलपुरके इन अभिनन्दन नाथ प्रभुके सम्बन्धमें आचार्य जिनप्रभसूरिने विविधतीर्थकल्पमें अधिक विस्तृत विवरण दिया है । उसका आशय इस प्रकार है __ "मालव देशमें मंगलपुरके निकट मेदपल्लीमें अभिनन्दन देवका चैत्य था। किसी समय म्लेच्छोंकी सेनाने आकर मन्दिर और बिम्ब दोनों तोड़ दिये। बिम्बके सात या नौ खण्ड हो गये। भीलोंने वे खण्ड एक जगह रख दिये। कोई एक श्रावक धाराड ग्रामसे प्रतिदिन वहाँ आता और अपना माल क्रय-विक्रय करके वापस अपने गांवको चला जाता। वहाँ जाकर वह भगवान्की पूजा करता। देव-पूजा किये बिना वह भोजन भी नहीं करता था। एक दिन वहाँके भीलोंने १. दी सिलप्पदिकारम्, आक्सफोर्ड प्रेस, पृ. १४४-३२० । २. श्रीमन्मालवदेश मंगलपुरे म्लेच्छः प्रतापागतः भग्ना मूर्तिरयोभियोजितशिराः संपूर्णतामाययो। यस्योपद्रवनाशिनः कलियुगेज्नेकप्रभावयुतः स श्रीमानभिनन्दनः स्थिरयते दिग्वाससां शासनम् ॥३४॥ ३. अन्तिदेशस्य अभिनन्दन-देव-कल्प।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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