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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ १७वीं शताब्दीमें हुए पं. चिमणा पण्डितने मराठी भाषामें 'तीर्थवन्दना' लिखी है। उसमें उन्होंने भी गुरुदत्त और वरदत्त मुनियोंका नामोल्लेख करके उनका मुक्ति-स्थान रेशन्दीगिरि ही माना है। इसका मूल पाठ इस प्रकार है।।
'समोसरनरम्य श्री पासोजीचे । रीसिदेगिरि आले होते तयाचे ।
तेथे गुरुदत्त मुनि वरदत्त । तपे झाले पंच यति मुक्तिकांत ॥२४॥' इसी प्रकार सोलहवीं शताब्दीके विद्वान् मेघराजने मराठीमें तीर्थवन्दना लिखी है। उसमें उन्होंने भी रेशन्दीगिरिका ही नाम दिया है। इसका मूल पाठ इस प्रकार है
'वलि मुनि सिद्ध वहुत वरदत्त रंग आदि करीए।
रीसंदीगिरिवर जाण तेहु वांदु भाव धरीए ॥१४॥' गुरुदत्त-वरदत्तसम्बन्धी पाठभेद विशेष महत्त्वका नहीं है । सम्भव है, पांच मुनियोंमें गुरुदत्त और वरदत्त नामक दो मुनि भी रहे हों। किन्तु 'रिस्सिन्दे'के स्थानपर 'रिस्सद्धि' या अन्य किसी पाठकी कल्पना बड़ी क्लिष्ट कल्पना है। परम्परागत रूपसे रेशन्दीगिरिको ही निर्वाण-स्थान माना जाता है । तीर्थवन्दनसम्बन्धी सभी पाठोंमें रेशन्दीगिरिका ही नाम आता है।
रेशन्दीगिरिका नाम नैनागिरि क्यों और किस प्रकार पड़ा, इसका कोई युक्ति-संगत कारण नहीं मिलता। किसी ग्रन्थमें रेशन्दीगिरिका नाम नैनागिरि आया हो, ऐसा भी देखने में नहीं आया। भैया भगवतीदासने निर्वाण-काण्डका जो भाषानुवाद किया है, उसमें 'रेशन्दीगिरि नैनानन्द' आया है। इसमें नेनानन्द रेशन्दोगिरिका विशेषण-परक पद है। सम्भव है, भैया भगवतीदासके कालमें रेशन्दीगिरिको नैनागिरि भी कहा जाता हो और नैनानन्द पदसे उसीकी ओर संकेत किया गया हो। .
हमें इसमें तो तनिक भी सन्देह नहीं है कि वर्तमान रेशन्दीगिरि ही निर्वाण-क्षेत्र रहा है और किसी कारणसे भी हो, इसे ही नैनागिरि कहा जाता है ।
पुरातत्त्व
यहाँ क्षेत्रपर तथा उसके आसपास कुछ पुरातत्त्व-सामग्री प्राप्त होती है। यहाँ जो मूर्तियां खुदाईमें निकली हैं, वे अनुमानतः ११वीं शताब्दीकी हैं। अनुश्रुति है कि लगभग १०० वर्ष पहले बम्होरीनिवासी चौधरी श्यामलालजीको स्वप्न आया। उसमें उन्होंने रेशन्दीगिरि पर्वतपर एक मन्दिर देखा। जब उनकी नींद खुली तो उन्होंने अपने स्वप्नकी चर्चा अन्य धर्म-बन्धुओंसे की। तब निश्चय हुआ कि क्षेत्रपर जाकर खुदाई करायी जाये। क्षेत्रपर स्वप्नमें देखे हुए स्थानपर खुदाई करायी गयी। वहाँ एक प्राचीन मन्दिर भूगर्भसे उत्खननके फलस्वरूप निकला। यह पाश्वनाथ मन्दिर कहलाता है। क्षेत्रपर जो प्राचीन मूर्तियां निकली हैं, वे भी इसी मन्दिरमें रखी हुई हैं। यही मन्दिर यहाँका सबसे प्राचीन मन्दिर कहलाता है। एक शिलालेखके अनुसार, जो मन्दिरकी दीवारमें लगा हुआ है, इस मन्दिरका निर्माण सं. ११०९ में हुआ है। इस प्रकार यह मन्दिर एक हजार वर्षसे भी अधिक प्राचीन है।
इस मन्दिरमें भूगर्भसे प्राप्त १३ प्राचीन मूर्तियां रखी हुई हैं। वे अपनी रचना-शैलीसे ही मन्दिरकी समकालीन प्रतीत होती हैं। पुरातत्त्व-सामग्रीमें एक वेदिका भी है जो क्षेत्रसे लगभग एक मील दूर जंगलमें है। इसे भी ११वीं-१२वीं शताब्दीका बताया जाता है, यद्यपि यह इतनी प्राचीन नहीं है । इसके अतिरिक्त यहाँ और कोई पुरातत्त्व-सामग्री नहीं मिली है।