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________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ ये वरदत्त आदि पांच मुनिवरोंके क्या नाम थे, यह किसो पुराण-ग्रन्थमें देखने में नहीं आया। किन्तु इस क्षेत्रके पर्वतस्थित प्रथम मन्दिरमें उन पाँचों मुनियोंकी मूर्तियाँ बनी हुई हैं और उनके नाम इस प्रकार अंकित हैं-मुनीन्द्रदत्त, इन्द्रदत्त, वरदत्त, गुणदत्त और सायरदत्त । इस गाथासे इतना ज्ञात होता है कि ये पांच मुनि भगवान् पाश्वनाथके समवसरणमें और उनके मुनि-संघमें थे। इस गाथाके अर्थ और पाठके सम्बन्धमें विद्वानोंमें कुछ मतभेद है। कुछ विद्वान् इस गाथासे यह आशय निकालते हैं कि पार्श्वनाथ भगवान्का समवसरण इस क्षेत्रपर आया था। उनके इस प्रकारका आशय निकालनेका आधार सम्भवतः भैया भगवतीदास द्वारा किया हुआ इस गाथाका पद्यात्मक हिन्दी अनुवाद है जो इस प्रकार है 'समवसरण श्री पार्श्व जिनंद । रेसिंदीगिरि नयनानंद । वरदत्तादि पंच ऋषिराज । ते बन्दो नित धरम जिहाज ॥' ___ इस हिन्दी अनुवादमें रेशन्दीगिरिपर पार्श्वनाथके समवसरणके आगमनविषयक कोई क्रियापद नहीं है और न वरदत्त आदि पांच मुनियोंके वहाँसे मुक्ति-गमनसे सम्बन्धित हो कोई क्रियापद है। सम्भवतः इसीसे कुछ लोग यह आशय निकालते हैं कि पाश्र्वनाथका समवसरण इस क्षेत्रपर आया था। वस्तुतः यह हिन्दी अनुवाद त्रुटिपूर्ण है। मूल गाथासे ऐसा कोई आशय व्यक्त नहीं होता। किन्तु कुछ विद्वान् यह कहते हैं कि इस गाथाको देखते हुए यह निश्चित धारणा जमती है कि रेशन्दीगिरिपर पार्श्वनाथका समवसरण आया था क्योंकि इस गाथामें स्पष्ट उल्लेख है कि पाश्वनाथके समवसरणमें स्थित वरदत्त आदि पांच मुनि रेशन्दीगिरिसे मुक्त हुए, क्योंकि यदि पाश्वनाथका समवसरण यहाँ न आया होता तो आचार्य 'पार्श्वनाथके समवसरणमें स्थित' यह विशेष पद क्यों रहता। आचार्यने यह पद वस्तुतः एक विशेष उद्देश्यसे दिया है। वह उद्देश्य यह है कि इस क्षेत्रपर पार्श्वनाथका समवसरण जब आया, तभी पाँच मुनियोंने तप किया और शुक्लध्यान द्वारा कर्मोंका नाश कर यहाँसे निर्वाण प्राप्त किया। इसी स्थितिमें 'पार्श्वनाथके समवसरणमें स्थित' इस पदको सार्थकता है। कुछ विद्वान् 'रिस्सिन्दे' इस पाठको अशुद्ध मानकर इसके स्थानपर 'रिस्सद्धि' शुद्ध पाठ मानते हैं और उसका अर्थ ऋष्यद्रि अर्थात् ऋषिगिरि करते हैं । ऋषिगिरि राजगृहीके पांच पहाड़ोंमें-से एक पहाड़ है। ये विद्वान् वरदत्त आदि मुनियोंका निर्वाण-स्थान रेशन्दीगिरि न मानकर ऋषिगिरिको मानते हैं। इन विद्वानोंने इस पाठ-भेदकी कल्पना किस आधारपर की, यह स्पष्ट नहीं हो पाया। लगता है, संस्कृत निर्वाण-भक्तिके 'ऋष्यद्रिके च विपुलाद्रि बलाहके च' इस पदके 'ऋष्यद्रिके' पाठसे उन्हें ऐसी कल्पना करनेकी प्रेरणा प्राप्त हुई होगी। किसी प्रतिमें 'रिस्सद्धि' यह पाठ नहीं मिलता। वस्तुतः 'रिस्सिन्दे' पाठ सर्वथा शुद्ध है। उसका संस्कृत रूप 'रिष्यन्दे अथवा ऋष्यन्दे' बनता है । ऋष्यन्दगिरिका अपभ्रंश होकर रेशन्दगिरि, फिर बोलचालमें रेशन्दीगिरि हो गया। पं. पन्नालालजी सोनी द्वारा सम्पादित 'क्रियाकलाप में यह गाथा निम्नलिखित रूपमें दी गयी है पासस्स समवसरणे गुरुदत्तवरदत्तपंचरिसिपमुहा। गिरिसिंदे गिरिसिहरे णिव्वाण गया णमो तेसिं॥ इस पाठके अनुसार पार्श्वनाथके समवसरणमें स्थित गुरुदत्त, वरदत्त आदि पाँच मुनि गिरीशेन्द्र (हिमालय)के शिखरसे मुक्त हुए। इस मान्यताका समर्थन किसी अन्य स्रोतसे नहीं होता। ३-२१
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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