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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ ओर सैंडमें माला लिये हुए गजराज खड़े हैं। भगवान्के एक ओर सौधर्मेन्द्र और दूसरी ओर उसकी शची चमर लिये हुए खड़ी है। इस शिलाफलकपर दोनों ओर दो-दो पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। प्रतिमाओंके दोनों ओर चमरवाहक खड़े हैं। चरण-चौकीपर मध्यमें शंख लांछन अंकित हैं। उसके दोनों ओर भक्त उसे हाथ जोड़ रहे हैं। वस्तुतः यह शिलाफलक पंचबालयति तीर्थंकरोंका है।
___ इस मन्दिरमें गर्भगृह, अर्धमण्डप और आंगन बने हैं। इसके प्रतिष्ठाकास्क हैं श्री छोटेलाल जौहरी, ग्वालियरवाले।
५४. नेमिनाथ मन्दिर-इस मन्दिरमें दो वेदियां हैं। एक वेदीपर भगवान् नेमिनाथकी संवत् १११२ की. पद्मासन, श्यामवर्ण तथा १८ इंच अवगाहनावाली प्रतिमा विराजमान है। दूसरी वेदीपर भी नेमिनाथकी मूर्ति है जो वीर संवत् २४८१ की प्रतिष्ठित है तथा जो पद्मासन, श्वेतवर्ण और ११ इंचकी है । मन्दिरमें गर्भगृह, अर्धमण्डप और आंगन हैं।
५५. सर्वतोभद्रिका-मन्दिर नं. ५४ के बाहर एक छतरीके नीचे एक पाषाण-स्तम्भमें सर्वतोभद्रिका प्रतिमा बनी हुई है। इसमें क्रमशः चन्द्रप्रभ, धर्मनाथ, पद्मप्रभ और महावीरको प्रतिमाएँ हैं । अवगाहना ३ फुट है । अधोभागमें तीन तीर्थंकर प्रतिमाएं बनी हुई हैं। यह प्रतिमा लगभग ११वीं शताब्दीको है।
५६. आदिनाथ मन्दिर-यह मूर्ति खड्गासन, मुंगिया वणं और साढ़े तीन फुट अवगाहनावाली है। मन्दिरमें केवल गर्भगृह हैं। मन्दिरके बाहर एक आलेमें चरण बने हुए हैं। मन्दिरको प्रतिष्ठा जैन पंचायत, करहराने करायी थी।
इस मन्दिरके बाहर चौकमें एक पक्की सुन्दर छत्रीमें दो चरण-चिह्न मुनिराज नंगकुमार और मुनिराज अनंगकुमारके बने हुए हैं। इन चरण-चिह्नोंको हम यहाँसे मुक्त हुए साढ़े पाँच कोटि मुनियोंका स्मारक-प्रतीक मान सकते हैं।
५७. चन्द्रप्रभ मन्दिर-यह यहाँका सर्वप्रमुख मन्दिर है। इस मन्दिरमें मूलनायकके अतिरिक्त सात वेदियाँ बनी हुई हैं। बायीं ओर बरामदेमें वेदी है जिसमें भगवान् महावीरकी श्वेतवर्ण, पद्मासन, १४ इंच ऊँची, वीर संवत् २४८१ में प्रतिष्ठित प्रतिमा विराजमान है।
___ बरामदेके दूसरे छोरपर वेदीमें पार्श्वनाथ विराजमान हैं। ये कृष्णवणं, पद्मासन और १८ इंच अवगाहनावाले हैं तथा संवत् १९३० में प्रतिष्ठित हुए। ___सामने बायीं ओरके गर्भगृहमें भगवान् शीतलनाथकी प्रतिमा एक पाषाण-फलकमें बनी हई है। यह खड़गासन, मंगिया वर्ण और सवा छह फूट अवगाहनाकी है। प्रतिमाके सिरपर छत्रत्रयी सुशोभित है। इस फलकपर दो तीर्थंकर प्रतिमाएं और बनी हुई हैं। यह संवत् १३९२ में प्रतिष्ठित हुई थी।
___इस गर्भगृहमें-से उतरकर मूल गर्भगृहमें पहुंचते हैं। यहाँ दीवालमें भगवान् चन्द्रप्रभकी भव्य प्रतिमा बनी हुई है। सम्भवतः यह प्रतिमा इसी स्थानपर पर्वतमें उकेरी गयी है। प्रतिमाके चरण तकका भाग ही दिखाई पड़ता है। उसका पीठासन भूमिके नीचे दबा हुआ है। प्रतिमाका वर्ण भूरा है, खड्गासन मुद्रामें है, मूर्तिकी अवगाहना साढ़े नौ फुट है। प्रतिमाके सिरके ऊपर छत्रत्रयी सुशोभित है तथा सिरके पीछे भामण्डल बना हुआ है। उनके दोनों ओर लेख उत्कीर्ण हैं, जो प्राचीन लेखकी नकल बताया जाता है। इस लेखके अनुसार मूर्तिकी प्रतिष्ठा संवत् ३३५ में हुई थी और संवत् १८८३में सेठ लक्ष्मीचन्द्रजी मथुरावालोंने इस मन्दिरका पुनर्निर्माण कराया। मूर्ति अत्यन्त मनोज्ञ है। यदि भक्तिपूर्वक इसकी ओर कुछ देर तक टकटकी लगाकर देखा जाये