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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ तो कबन्ध मात्र है। उसमें भी आधी भुजाएँ और घुटनोंसे नीचेका भाग नहीं है। दूसरी मूर्ति सिरके आधे भागसे गरदन तक ही है। दोनों ही तीर्थंकर-मूर्तियां हैं और ओपदार पालिशके कारण इन्हें मौर्यकालीन स्वीकार किया गया है । यहां एक जैन मन्दिरकी नींव भी मिली है। यहाँकी ईंटें मौर्यकालीन सिद्ध हो चुकी हैं । यहाँ एक मौर्यकालीन रजतमुद्रा भी प्राप्त है।
मध्यप्रदेशमें गुप्तकालसे पूर्वके किसी चैत्य, स्तूप या विहारके अवशेष उपलब्ध नहीं हुए। यहां मध्यकालसे पूर्वका भी कोई जैन मन्दिर अथवा उसके अवशेष भी उपलब्ध नहीं हुए । ग्यारसपुरका वज्रमठ और खजुराहोका पार्श्वनाथ मन्दिर सम्भवतः मध्यप्रदेशके जैन मन्दिरोंमें सर्वाधिक प्राचीन हैं। इनका निर्माणकाल १०वीं शताब्दी है। कुछ विद्वानोंके मतानुसार ग्यारसपुरका यह भग्न मन्दिर १०वीं शताब्दीसे भी पूर्वका है। फर्गुसन साहब तो इसे ७वीं शताब्दीका अनुमानित करते हैं। खजुराहोंके आदिनाथ और शान्तिनाथ मन्दिर इसके कुछ काल बादके हैं। ११-१२वीं शताब्दीके मन्दिरोंमें उल्लेखनीय है पावागिरि ऊनके चौबारा डेरा, नहाल अवारका डेरा और ग्वालेश्वर मन्दिर, रेशंदीगिरिका पार्श्वनाथ मन्दिर, खनियाधानाके आसपास गूड़र, गोलाकोट, तेरहीके भग्नप्राय मन्दिर भी इसी कालके लगते हैं। पतियानदाईका मन्दिर अपने संरचनात्मक शिल्पके कारण गुप्तकालीन कलाके साथ समानता रखता है, किन्तु इसे मध्यकालका माना गया है।
___ मन्दिरोंके निर्माण-कालका निर्णय उसकी संरचनात्मक विशेषता, शिखरको शैली आदि तत्त्वोंके आधारपर किया जाता है। मन्दिरोंमें प्रायः निर्माण-काल-सूचक अभिलेख लगानेकी परम्परा नहीं रही । अतः मन्दिरमें विराजमान मूर्तियोंके लेखके आधारपर मन्दिर-प्रतिष्ठाका काल-निर्णय कर लिया जाता है, किन्तु मूर्ति-लेखोंका आधार इस सम्बन्धमें सदा ही विश्वसनीय सिद्ध नहीं हो पाता । कारण स्पष्ट है । कभी-कभी मन्दिर और मूर्तिके प्रतिष्ठापक भिन्न-भिन्न और भिन्नकालीन व्यक्ति होते हैं । अनेक बार मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा किसी स्थानपर करा ली जाती है और आवश्यकता एवं सुविधाको दृष्टिसे किसी मन्दिरमें विराजमान कर दी जाती है। एक ही मन्दिरमें विभिन्न कालोंकी विभिन्न व्यक्तियों द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां मिलती हैं। मन्दिरके काल-निर्णयमें वे ही मूर्तिलेख सहायक सिद्ध हो सकते हैं, जिनके सम्बन्धमें यह निश्चित हो जाये कि मन्दिर और मूर्तिको प्रतिष्ठा एक साथ हुई है। इन कारणोंसे अभिलेखके अभावमें किसी मन्दिरके निर्माणकालका निश्चय करना अत्यन्त कठिन होता है। इसीलिए हमने उपर्युक्त मन्दिरोंके अतिरिक्त अन्य मन्दिरोंका उल्लेख नहीं किया।
जहाँ तक हमारी जानकारी है, मध्यकालके जैन मन्दिरोंमें केवल खजुराहो, ग्यारसपुर और उनके मन्दिर ही कुछ अच्छी दशामें हैं, शेष मन्दिर तो अर्धभग्न दशामें खड़े हैं। इन स्थानोंके जिनालयोंके ऊपर शिखरकी भी संयोजना है। किन्तु इनमें भी खजुराहोके शिखरोंकी रचना और अलंकृति अति भव्य है। इन मन्दिरोंमें पार्श्वनाथ मन्दिरकी कला तो अनुपम है। शिल्पीके हस्तकौशलने पाषाणोंमें मानो प्राण डाल दिये हों। वैसे इन तीनों स्थानोंके मन्दिरोंकी कला और शिखर-संयोजनामें अद्भुत साम्य पाया जाता है। .--यहाँ खजुराहोके अन्य तीन मन्दिरोंके सम्बन्धमें जेम्स फर्गुसनके अभिमतका उल्लेख करनेका लोभ संवरण नहीं कर सकता। चौंसठ योगिनी मन्दिरकी प्रमिति और देवकुलिकाओंको देख कर उनकी यह धारणा बनी कि 'मन्दिर निर्माणकी यह रीति जैनोंकी अपनी विशेषता है, अतः-मूलतः इसके जेन होनेमें मुझे तनिक भी सन्देह नहीं है।' मध्यवर्ती मन्दिर अब नहीं है। फर्गुसन साहबके मतानुसार सम्भवतःप्राचीन बौद्ध चैत्योंके समान यह काष्ठका रहा हो। सम्भवतः खजुराहोके