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________________ २० भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ आदिनाथके ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती द्वारा ७२ जिनालयोंके निर्माणके उल्लेख मिलते हैं । इसके बाद अनेक व्यक्तियोंने जैन मन्दिरोंका निर्माण कराया, इस प्रकारके उल्लेख पुराण साहित्यमें स्थान-स्थानपर उपलब्ध होते हैं । __इतिहास और पुरातत्वके विद्वानोंका अभिमत है कि अति प्राचीन कालमें मन्दिरोंका निर्माण नहीं होता था, स्तूप बनाये जाते थे । पूज्य पुरुषोंके निधन-स्थानपर स्तूपोंका निर्माण होता था। उनकी किसी विशेष घटनाको स्मृतिको सुरक्षित रखनेके लिए भी स्तूप निर्मित किये जाते थे। मथुरामें स्तूपके अवशेष मिले हैं। इन्हींका विकास होते-होते गुफा-चैत्य अथवा गुहा-मन्दिर बनाये जाने लगे। इसी कालमें विहारोंका भी निर्माण होना प्रारम्भ हुआ। सम्भवतः गहा-मन्दिरोंके आधारपर ही स्वतन्त्र मन्दिरोंके निर्माणको परम्परा चली। मन्दिरोंके संरचनात्मक शिल्पमें जो वैविध्य उपलब्ध होता है, वह सब प्रान्त, रुचि और संस्कृतिके विभेदके कारण है। वास्तु-कला और शिल्पका ज्यों-ज्यों विकास होता गया, मन्दिरोंकी संरचना और शिल्पमें भी उसी प्रकार परिवर्तन होते गये। ___यद्यपि प्राचीन स्तूप वर्तमानमें उपलब्ध नहीं है किन्तु गुहा-मन्दिर अब तक उपलब्ध होते हैं। वे न केवल प्राचीन वास्तुकागके ही निदर्शन हैं, अपितु उनसे तत्कालीन सामाजिक स्थिति और इतिहासपर भी विशद प्रकाश पड़ता है । जैनाश्रित कलासे सम्बन्धित गुहा-मन्दिरोंमें सर्वाधिक प्राचीन महाराष्ट्र प्रदेशके उस्मानाबाद. जिलेमें तेरापुरकी गुफाएं हैं। जैन साहित्यिक स्रोतोंके अनुसार ये महाराज करकण्डु द्वारा निर्मित करायी गयी थीं। करकण्डु नरेशका काल ईसा पूर्व ८०० से ६०० के बीचका है। ___ इसी प्रकार भद्रबाहु गुफा ( श्रवणबेलगोला), सोन भण्डार गुफा (राजगिरि), पभोसाकी गुफाएं, उदयगिरि-खण्डगिरि (उड़ीसा), उदयगिरि (विदिशा), बाबा प्यारामठकी गुफाएँ (जूनागढ़), सित्तन्नवासल, बादामी, ऐहोल, ऐलोरा, अंकाई-तंकाई आदिकी गुफाएँ मौर्यकालसे लेकर ११-१२वीं शताब्दी तककी हैं। इनमें से कुछ गुफाएँ केवल मुनियोंके ध्यान-अध्ययनके ही काममें आती थीं, किन्तु अधिकांश गुफाओंमें तीर्थंकर मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। मध्यप्रदेशमें उदयगिरि, ग्वालियर आदि कुछ ही स्थानोंपर गुहा-मन्दिर हैं। - जैनोंमें विहारोंकी परम्परा प्राचीन कालसे रही है। इन विहारोंका उपयोग मुनियोंके आवास और गरुकलके रूपमें होता था। ऐसे ही एक विहारका उल्लेख पहाडपर (जिला राजशा बंगाल) के ताम्रलेखमें आया है। लेखानुसार इसका काल गुप्त सं. १५९ (ई० सन् ४७२) है। इस लेखमें पंचस्तूप निकायके निर्ग्रन्थ श्रमणाचार्य गुहन्दि और उनके शिष्योंसे अधिष्ठित विहार मन्दिरके लिए दिये हुए दानका उल्लेख किया गया है । इस लेखमें जिस विहारका उल्लेख किया गया है, संयोगसे उत्खननके फलस्वरूप वह विहार भूगर्भसे प्रकट हो चुका है । यह विहार अत्यन्त विलक्षण है। इसमें लगभग १७५ गुफाकार कोष्ठ हैं। चारों दिशाओं में द्वार बने हए हैं तथा मध्यमें सर्वतोभद्र मन्दिर बना हुआ है । मन्दिर तीन मंजिलका है। दुःख है कि इस विहारके अतिरिक्त अन्य कोई जैन बिहार नहीं मिला। पहाड़पुरके ताम्रपत्रमें उल्लिखित गुहन्दि आचार्य पंचस्तूपान्वयी थे। इसी परम्परामें षट्खण्डागमके विद्वान् टीकाकार वीरसेन, जिनसेन आदि आचार्य हुए। पहाड़पुरका यह विहार ईसाकी पहली दूसरी शताब्दीसे विद्या और जैनधर्मका महान् केन्द्र रहा था। - जब हम जैन मन्दिरोंके सम्बन्धमें विचार करते हैं तो हमें लगता है, जबसे जैन मूर्तियां उपलब्ध होती हैं, तभोसे जेन मन्दिर भी मिलते हैं। अबतक उपलब्ध मूतियोंमें सर्वाधिक प्राचीन मूर्ति लोहानीपुर (पटना) की मानी जाती है । यहां दो जिन-मूर्तियां उपलब्ध हुई थीं-एक मूर्तिका
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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