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________________ १२८ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र-दर्शन इस क्षेत्रके चारों ओरका दृश्य अत्यन्त मनोरम है। कहा जाता है कि बुन्देलखण्डमें सात भोयरे बहुत प्रसिद्ध रहे हैं। ये सातों भोयरे पवा, देवगढ़, सीरीन, करगुवां, बन्धा, पपोरा और थूवौनमें स्थित हैं। ऐसी भी अनुश्रुति है कि ये सातों भोयरे देवपत और खेवपत नामक दो भाइयोंने निर्मित कराये थे। इन भोयरोंका निर्माण काल क्या है, यह अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। किन्तु इन भोयरोंमें कुछ मूर्तियाँ ११वीं-१२वीं शताब्दीकी भी उपलब्ध होती हैं। ये मूर्तियाँ मूलतः इन भोयरोंमें ही प्रतिष्ठित की गयी थीं, यह विश्वासपूर्वक कहना कठिन है । ऐतिहासिक पृष्ठभूमिके सन्दर्भमें विचार करनेपर ऐसा लगता है कि भोयरे उस कालकी उपज हैं जब आततायी मुस्लिम शासक देवालय और देव-प्रतिमाओंका विध्वंस करने लगे थे। ऐसे संकट-कालमें देव-प्रतिमाओंकी सुरक्षाकी चिन्ता होना स्वाभाविक था। देवालयोंकी सुरक्षा होना कठिन जानकर देव-प्रतिमाओंकी सरक्षाके प्रयत्न किये गये और भूगर्भ में वेदियां या चबतरे बनाकर वहीं देवालयकी मतियां विराजमान कर दी गयीं। कुछ स्थानोंपर इस प्रकारको भी घटनाएं हुईं कि आततायियोंने देवालयको ही नष्ट कर दिया। सतत आतंकके कारण जैन समाजने उन विध्वस्त मन्दिरोंका पुननिर्माण नहीं कराया। धीरे-धीरे समाज उन ध्वंसावशेषोंके नीचे दबे हुए भोयरेको भी भूल गया। कहीं-कहीं खुदाई कराते समय ऐसे भोयरे और उनमें स्थित मूर्तियाँ सुरक्षित रूपमें मिली हैं। भोयरे-निर्माणका एक अन्य उद्देश्य तपःसाधनाके लिए शान्तिपूर्ण वातावरणकी सृष्टि भी रहा होगा। बन्धा क्षेत्र में भी एक भोयरा है। इसकी रचना-शैली उपर्युक्त गर्भगृह-सप्तकसे बहुत कुछ मिलती-जुलती है। इस भोयरेमें मूलनायक प्रतिमा भगवान् अजितनाथकी है। लेखसे स्पष्ट है कि इस प्रतिमाकी प्रतिष्ठा चैत्र शुक्ला त्रयोदशीको वि. संवत् ११९९ ( ई. स. ११४२) में हुई थी। यह मूर्ति अत्यन्त प्रभावक है। इसके नेत्रोंमें प्रशान्त स्निग्धता है, मुख-मुद्रा अत्यन्त सौम्य है। दर्शन करनेपर अनुभव होता है कि प्रभु करुणाकी वर्षा कर रहे हैं। _इस मूर्तिके एक ओर भगवान् ऋषभदेव और दूसरी ओर भगवान् सम्भवनाथ खड्गासनमें ध्यानलीन हैं। इन दोनोंका प्रतिष्ठा-काल संवत् १२०९ है। प्राचीन प्रतिमाओंमें दो प्रतिमाएं और भी उल्लेखनीय हैं। वे हैं भगवान् सम्भवनाथ और भगवान् नेमिनाथकी। इन दोनोंके पीठासनोंपर संवत् १२०९ के अभिलेख उत्कीर्ण हैं।। एक मूर्ति भगवान् ऋषभदेवकी है जिसके पादपीठपर लेख तो है किन्तु संवत् पढ़नेमें नहीं आता। लगता है, यह भी उपयुक्त मूर्तियोंकी समकालीन है। यहाँ अन्य भी अनेक मूर्तियाँ हैं, किन्तु ये इस कालके बादकी हैं। इस गर्भगृहके निकट एक विशाल शिखरबद्ध मन्दिर है। शिखरबद्ध मन्दिरके निकट ही एक और मन्दिर है। यह पहले सम्भवतः जैन मठ था, जिसमें बारह द्वारियाँ हैं। ऐसा लगता है, प्राचीन कालमें जैन साधुओंकी समाधि ( निषधिका ) के रूपमें इसका उपयोग होता होगा। यहाँ एक स्तम्भपर अभिलेख भी अंकित है, किन्तु अस्पष्ट होनेसे वह पढ़नेमें नहीं आता। यहाँ तीन प्राचीन मूर्तियां विराजमान हैं, जो अनुमानतः ११-१२वीं शताब्दी की हैं। शिखरबद्ध मन्दिरकी ऊंचाई लगभग ६५ फुट है। इस मन्दिरका निर्माण १८वीं शताब्दीमें बम्हौरी बरानानिवासी स. सिं. गिरधारीलालजीको मातेश्वरीने कराया था। वे धर्मनिष्ठ महिला थीं। उनके आदेशसे निर्माणके समय मन्दिरके काममें आनेवाला जल पहले छान लिया जाता था।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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