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भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ
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बदनावरका ऐतिहासिक महत्त्व
जैसा कि पूर्वमें बतलाया जा चुका है, बदनावरका प्राचीन नाम वर्धमानपुर था । आचार्यं जिनसेनने 'हरिवंशपुराण' की प्रशस्ति में इसकी रचनाका स्थान वर्धमानपुर बताया है । प्रशस्तिका वह श्लोक इस प्रकार है
कल्याणैः परिवर्धमानविपुल श्रीवर्धमाने पुरे श्रीपार्खालयनन्न राजवसतो पर्याप्तशेषः पुरा । पश्चाद्दोस्त टिकाप्रजाप्रजनितप्राज्याचं नावचने शान्तेः शान्तगृहे जिनस्य रचितो वंशो हरीणामयम् ॥६६॥५३
इसमें बताया है कि अतिशय कल्याणोंसे वृद्धिगत और धन-वैभवसे सम्पन्न वर्धमानपुरमें नलराजके बनवाये हुए पार्श्वनाथ जिनालय में बैठकर इस ग्रन्थकी रचना की। किन्तु वहाँ इसकी रचना पूर्ण नहीं हुई । पश्चात् दोस्तटिकाके प्रशान्त शान्तिनाथ जिनालय में इसकी रचना पूर्ण हुई। तब प्रजाने इस ग्रन्थकी पूजा की।
उन्होंने यह भी लिखा है कि इसकी रचना शक संवत् ७०५ ( ७८३ ) में समाप्त की । इनके १४८ वर्ष पश्चात् आचार्य हरिषेणने शक संवत् ८५३ ( सन् ९३१ ) में बृहत् कथाकोषकी रचना भी इसी वर्धमानपुरमें की थी । ये दोनों ही आचार्य पुन्नाट संघके प्रसिद्ध आचार्य थे ।
नामसाम्यके कारण सहज ही हमारा ध्यान बदनावर ( प्राचीन वर्धमानपुर ) की ओर जाता है और यह जिज्ञासा होती है कि क्या आचार्यद्वयको कर्म-स्थली बननेका सौभाग्य बदनावरको प्राप्त हुआ था ? पुन्नाट संघके आचार्योंमें केवल इन दो ही आचार्योंकी रचनाएँ प्राप्त होती हैं और वे दोनों ही रचनाएँ वर्धमानपुरमें निर्मित हुईं। इस दृष्टिसे वर्धमानपुरका पुन्नाट संघके साथ ऐतिहासिक सम्बन्ध ज्ञात होता है ।
वर्धमानपुर नामके कई नगरोंके उल्लेख प्राचीन शिलालेखों और दानपत्रों में प्राप्त होते हैं और वे नगर अब भी कुछ अपभ्रंश नामोंसे मिलते हैं । जैसे (१) बदनावर । यहाँसे प्राप्त शिला'लेखों अथवा मूर्तिलेखों में इसका नाम वर्धमानपुर मिलता है । (२) बंगालमें बर्दवान नामक स्थान है । यहाँके किसी चित्रसेनने सन् १७४४ में चित्रचम्पूकी रचना की थी। पहले इसका नाम वर्धमानपुरं होगा । (३) आन्ध्रप्रदेश में बढमाण नामक एक स्थान है, जिसका प्राचीन नाम वर्धमान नगरी था। काकातीय रुद्रदेवका शक संवत् १०८४ का जो अनुमकोण्डा शिलालेख प्राप्त हुआ है, • उसमें रुद्रदेव द्वारा वर्धमान नगरीपर अधिकार करनेका विवरण दिया हुआ है । वर्धमान नगरी अनुमण्डा निकट है और अब इसका नाम बढमाण है । (४) काठियावाड़ - गुजरातमें बढमाण नामक नगर है जिसका प्राचीन नाम वर्धमानपुर था और जहाँ मेरुतुंगने वि. संवत् १३६१ में प्रबन्ध - चिन्तामणिकी रचना की थी। इस प्रकार वर्धमानपुर नामके चार नगर विद्यमान थे । इनमें से आचार्य जिनसेन और आचार्य हरिषेणका वर्धमानपुर कौन-सा था, यह पता लगाना है । आचार्य जिनसेनने वर्धमानपुरकी चारों दिशाओंके राजाओंका नाम दिया है, जिससे उस स्थानकी पहचान सरलतासे हो सके। उन्होंने अपने ग्रन्थको प्रशस्ति में इस प्रकार पद्म दिया हैशाकेष्वब्दशतेषु सप्तसु दिशं पंचोत्तरेषूत्तरां, पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्णनृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम् । पूर्वां श्रीमदवन्तिभूभृति नृपे वत्सादिराजेऽपरां सौराणामधिमण्डलं जययुते वीरे वराहेऽवति ॥६६॥५२शा