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________________ २२६ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ - इस मूर्ति-लेखके अनुसार यहाँ गयकर्णदेवके राज्यमें उसके महासामन्त राष्ट्रकूटवंशी गोल्हण देवका शासन था। यह गयकर्णदेव कलचुरिवंशका नरेश था। इस राजाके सम्बन्धमें कई स्थानोंपर शिलालेख उपलब्ध हुए हैं। भेड़ाघाट शिलालेख इसी राजाके शासनकाल संवत् ९०९ का है । गयकर्णके त्रिपुरी शिलालेखमें संवत् ९०२ दिया गया है। बहोरीबन्दके मूर्तिलेख और उक्त शिलालेखोंके कालमें लगभग १०० वर्षका अन्तर पड़ता है। इससे कई विद्वानोंको भ्रान्ति होना स्वाभाविक है। __ कलचुरि राजवंशका इतिहास देखनेसे ज्ञात होता है कि जबलपुरके निकटवर्ती भूभागमें दहलके कलचुरियोंने कोकल्ल द्वितीयके पुत्र गांगेयदेवके शासनकालमें अपनी प्रतिष्ठा और शक्ति काफी बढ़ा ली थी। उसने परमार भोज और राजेन्द्र चोलसे सन्धि कर ली, कोसल नरेश ( महाशिवगुप्त ययाति ) को परास्त किया, उत्कलको रौंदता हुआ समुद्र-तट तक जा पहुंचा। बनारसको पालवंशी महीपाल प्रथमसे छीनकर अपने राज्यमें मिला लिया। उसने अंग, मगध और त्रिमुक्तिपर भी आक्रमण किया। किन्तु सफल नहीं हो सका। उसने विक्रमादित्य और त्रिकलिंगाधिपति-जैसे विरुद धारण किये। इस राजाके सोने, चांदी और तांबेके अनेक सिक्के प्राप्त हुए हैं। इसकी मृत्यु अनुमानतः सन् १०३४ या उसके आसपास हुई। इसके पश्चात् इसका पुत्र कर्ण गद्दीपर बैठा। उसका रीवा शिलालेख सन १०४८ का है। सन १०७३ में उसका पुत्र यशःकर्ण शासनारूढ हआ। बारह शताब्दीके प्रथम चरणमें गयकर्णको अपने पिताका राज्य उत्तराधिकारमें मिला। कहते हैं, एक अभियानके समय यह नरेश हाथीपर सो रहा था। उसका रत्नहार वृक्षकी एक शाखामें अटक गया। हाथी चल रहा था। हारके कारण गला घुट जानेसे इसकी मृत्यु हो गयी। यह दहल नरेश सन् ११५१ में राज्य-शासन कर रहा था, इस प्रकारके प्रमाण उपलब्ध होते हैं। भेड़ाघाट शिलालेखमें नीलकण्ठ महादेव, गजमुख गणेश और सरस्वतीकी वन्दना करनेके पश्चात् चन्द्रवंशी अर्जुनकी प्रशंसा करके उसी वंशमें हुए अपने पूर्वजोंकी वंशावली इस प्रकार दी गयी है-कोकल्लदेव, गगियदेव, कर्ण, यशःकर्ण । गयकर्णदेवको रानीका नाम अल्हनदेवी था। वह मेवाड़ नरेश विजयसिंहकी पुत्री और मालवनरेश उदयादित्यकी दौहित्री थी। उसकी माताका नाम श्यामलादेवी था । इस प्रकार उसका रक्त सम्बन्ध मेवाड़के गुहिल और मालवाके परमारोंसे था । उसने भेड़ाघाटमें वैद्यनाथ इन्दुमौलि ( महादेव ) का एक भव्य मन्दिर संवत् ९०७ में निर्मित कराया था। उससे नरसिंह नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। दूसरे पुत्रका नाम जयसिंह था। मन्दिरके साथ उसने स्वाध्याय-शाला और उद्यान-समूहका भी निर्माण कराया। ____ इस शिलालेखसे ज्ञात होता है कि यह लेख संवत् ९०७ में उत्कीर्ण किया गया। उस समय महाराज नरसिंहका राज्य था। भरहुत शिलालेख संवत् ९०९ श्रावण सुदी ५ बुधवारका है और यह श्री नरसिंहके पौत्र बल्लालदेवके शासनकालका है। ७ पंक्तियोंके इस शिलालेखका मूलपाठ इस प्रकार है "स्वस्ति श्री परमभट्टारकमहाराजाधिराजपरमेश्वर - श्री वामदेवपादानुध्यातपरमभट्टारकमहामहाराजाधिराजपरमेश्वर परमहेश्वर-त्रिकलिंगाधिपति निजभुजोपार्जित अश्वपति गजपति नरपति राजत्रियाधिपति श्रीमान् नरसिंहदेवचरणाः वाधवा ग्रामकस्य महाराजपुत्र श्रीकेशवादित्य पुत्र बल्लालदेवकस्याह्वयः संवत् ९०९ श्रावक सुदी ५ बुधे ।"
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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