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________________ १५२ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ . निर्वाण-काण्डके उल्लेखसे यह ज्ञात होता है कि यहाँसे न केवल गुरुदत्त मुनि ही मोक्ष पधारे हैं, अपितु अन्य मुनि भी मुक्त हुए हैं। भाषा-कवियोंने इनकी संख्या साढ़े तीन कोटि दी है। वास्तवमें तपोभूमिके उपयुक्त रमणीयताको देखते हुए प्राचीन कालमें यहाँ तपस्याके लिए आना अधिक सम्भव था और अनेक मुनियोंका यहाँसे निर्वाण प्राप्त करना असम्भव नहीं था। द्रोणगिरि नामक एक पर्वत ऋषिकेशसे नीती घाटीकी ओर जाते हुए १६९ मील दूर जुम्भासे दिखाई पड़ता है। यह कुमायूँमें है । इसे दूनगिरि कहते हैं। किन्तु इस पर्वतके निकट भी फलहोड़ी नामक कोई ग्राम कभी रहा था, ऐसे प्रमाण नहीं मिलते। अतः यह द्रोणगिरि गुरुदत्तादि मुनियोंकी तपोभूमि रहा हो, ऐसी सम्भावना प्रतीत नहीं होती। हिन्दू परम्परामें वाल्मीकि तथा तुलसीकृत रामायणोंमें लक्ष्मणके शक्ति लगनेपर हनुमान् द्वारा जिस द्रोणगिरि पर्वतसे संजीवनी बूटी लानेके उल्लेख मिलते हैं, वह द्रोणगिरि हिमालय-शृंखलामें स्थित यही द्रोणगिरि था, ऐसी मान्यता प्रचलित है। दूनगिरि पर्वत यहाँका प्रचलित नाम है। यह दूनगिरि ही हिन्दू पुराणवणित द्रोणगिरि है। यहाँके लोढ़मूना जंगलमें गर्ग ऋषिका आश्रम था। गागस नदी इसी जंगलसे निकलती है और धौलीमें जाकर गिरती है।' हिन्दू लोग इसी दूनगिरिको अपना तीर्थ मानते हैं । कूर्माचल ( कुमायूँ ) में विष्णुने मन्दराचलको साधनेके लिए कूर्मावतार लिया, ऐसी उनको मान्यता है। वह स्थान लोहाघाटके निकट माना जाता है। कुछ विद्वानोंको मान्यता है कि वर्तमान सैंधपा ग्रामके निकटस्थ द्रोणगिरि ही वह पवंत है, जहाँसे हनुमान् संजीवनी बूटी ले गये थे। इन विद्वानोंको धारणा है कि श्री रामचन्द्र वनवासके समय ओरछा भी पधारे थे। वे इसके निकट 'रमन्ना' ( रामारण्य ) वनमें ठहरे थे और उस समय वे द्रोणगिरि पर्वतपर भी आये थे। किन्तु यह सब केवल कल्पना-भर है। प्राचीन शास्त्रोंमें द्रोणगिरिका उल्लेख निर्वाण-काण्ड और निर्वाण-भक्तिके अतिरिक्त द्रोणगिरि या द्रोणिमान् पर्वतका उल्लेख भगवती-आराधना, आराधनासार, आराधना-कथाकोष आदि ग्रन्थोंमें आया है। भगवतीआराधनामें आचार्य शिवकोटि इस प्रकार वर्णन करते हैं हत्थिणपुर गुरुदत्तो संवलिथालीव दोणिमंत्तम्मि । - उज्झंतो अधियासिय पडिपण्णो उत्तमं अट्ठ ॥१५५२।। अर्थात्, हस्तिनापुरके निवासी गुरुदत्त मुनिराज द्रोणिमान् पर्वतके ऊपर सम्भलिथालीके समान जलते हुए उत्तम अर्थको प्राप्त हुए। ___सम्भलिथालीका अर्थ है-एक बरतन जिसमें घास-फूंस भरा हो, उसका मुख नीचेकी ओर हो और सूखे पत्तों आदिसे ढंका हो तथा उसके चारों ओर अग्नि लगी हो। अग्नि लगनेपर जिस प्रकार भीतरका घास-फूस जलने लगता है, उसी प्रकार द्रोणिमान् पर्वतके ऊपर गुरुदत्त मुनिराज भी जलकर मुक्त हुए। इसी प्रकार आराधनासार ग्रन्थमें इस घटनाका उल्लेख इस प्रकार किया गया है वास्तव्यो हास्तिने धीरो द्रोणीमति महीधरे । गुरुदत्तो यतिः स्वार्थ जग्राहानलवेष्टितः ॥ अर्थात्, हस्तिनापुरके निवासी गुरुदत्त मुनिने दोणिमान् पर्वत पर अग्नि लगनेपर आत्माके प्रयोजन ( स्वार्थ ) को सिद्ध किया। १. Geographical Dictionary of Ancient India, by Nandolal Dey.
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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