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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ द्वार बने हैं। यह चौलुक्य शैलीकी अत्युत्कृष्ट शिल्प रचना है। चौलुक्य कुमारपालके बनवाये हुए मन्दिरोंके साथ इसकी बहुत समानता है। प्रत्येक अर्धमण्डप चार स्तम्भोंपर आधारित है । उत्तरी अर्धमण्डपसे मन्दिरमें प्रवेश करना पड़ता है। अधमण्डप, मण्डप और गूढ़मण्डपके स्तम्भ चाहे वे आधार-स्तम्भ हों या भित्ति-स्तम्भ-सभी अलंकृत हैं। इसकी छतों विशेषतः अधमण्डप और महामण्डपकी छतोंमें अलंकृत पद्म बने हैं। गूढमण्डपमें आठ स्तम्भ हैं। द्वार शाखाएँ, पत्रलता, पद्मपत्र-लताओंसे सुशोभित हैं। इसके सिरदलोंपर तीर्थंकर और यक्षी-मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । इसकी बाह्य भित्तियोंमें रथिकाएं बनी हुई हैं। उनमें यक्ष-यक्षी, सुर-सुन्दरियाँ एवं तीर्थंकर मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । इन भित्तियोंपर खजुराहोके समान कुछ कामकला सम्बन्धी अंकन भी हैं। किन्तु दोनों स्थानोंका अन्तर ध्यानपूर्वक देखनेपर दृष्टिमें आये बिना नहीं रहता। मुख्य अन्तर तो पाषाणका है । खजुराहोका पाषाण चिकना और ठोस है। यहाँका पाषाण बुरबुरा और खुरदरा है। खजुराहोका पाषाण झडता नहीं, इसलिए वहाँको मतियां धप और वर्षा में भी अब तक सुरक्षित हैं और स्पष्ट हैं, जबकि यहांकी मूर्तियोंका पाषाण खिर रहा है, इसलिए ये मूर्तियां बहुत कुछ अस्पष्ट होती जा रही हैं। सरसरी दृष्टिसे देखनेपर ये पकड़में नहीं आतीं। खजुराहोके समान यहाँके कलाकार शिल्पीने लौकिक और धार्मिक दोनों ही जीवनोको पाषाणमें मूर्त रूप दिया है। एक ओर उसने तीर्थंकरों, उनके सेवक यक्ष-यक्षियोंका अंकन किया तो दूसरी ओर लोकानुरंजक दृश्यों-जैसे, सुरसुन्दरियों और मिथुनोंको भी अपनी कल्पना और कलाके सहारे पाषाणोंमें सजीव रूप दिया। वर्तमानमें इस मन्दिरमें कोई प्रतिमा विराजमान नहीं है। यहांकी दो प्रतिमाएँ इन्दौर म्यूजियममें पहुंच गयी हैं। उनमें शान्तिनाथ भगवान्की प्रतिमापर सं. १२४२ माघ सुदी ७ अंकित है। दूसरी प्रतिमापर लेख तो है किन्तु वह अस्पष्ट है । सम्भवतः वह भी इसके समकालीन होगी। ग्वालेश्वर मन्दिर-पहाड़पर जो विशाल मन्दिर बना हुआ है, वह ग्वालेश्वर मन्दिरके नामसे प्रसिद्ध है। संभवतः यह मन्दिर किसी ग्वाल नामक व्यक्तिने बनवाया था, इसलिए इसका नाम ग्वालेश्वर मन्दिर प्रसिद्ध हो गया। सिरपुर में एक मन्दिरमें शिलालेख मिला था उसमें रामखेतके शिष्य ग्वाल गोविन्दका नाम मिलता है। उदयपूर केशरियामें भी ग्वाल गोविन्द द्वारा प्रतिष्ठा किये जानेके प्रमाण मिले हैं। अचलपुर और खेरलाका शासक श्रीपाल नरेश जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है-सम्भवतः इन्हीं रामखेतका शिष्य था। यदि यह ग्वालेश्वर मन्दिर इसी ग्वाल गोविन्दका बनाया हुआ सिद्ध हो जाता है तो ऊनका इतिहास बल्लालसे प्रायः सौ वर्ष प्राचीन सिद्ध हो सकता है। किन्तु अभी इस सम्बन्धमें कोई निश्चित मत प्रकट करना जल्दबाजी होगी। कहते हैं, इस मन्दिरमें पहले एक सिंह रहा करता था। हो सकता है, इस निर्जन और एकान्त वन प्रदेशमें बने हुए इस पार्वत्य मन्दिरको अपने लिए सुरक्षित और सुविधाजनक समझकर वनराजने इसे अपना अड्डा बना लिया हो। इस मन्दिरकी रचना शैलीपर परमार और चौलुक्य कलाका संयुक्त प्रभाव परिलक्षित होता है। यों यह चौबारा डेरा नं. २ से बहुत मिलता-जुलता है। इसकी छतोंमें अत्यन्त कलापूर्ण कमल बने हुए हैं जो आठ शताब्दियोंके कठिन आघात सहकर आज भी सजीव-से प्रतीत होते हैं। मन्दिरके मध्यमें सभा-मण्डप बना हुआ है। तीन द्वार हैं, जिनके सिरदलोंपर पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियाँ बनी हुई हैं। इसका गर्भगृह सभा-मण्डपसे दस फुट नीचा है। नीचे पहुँचनेके लिए दस
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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