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________________ १८८ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ मूल प्रतिमाके समान इसका परिकर भी अत्यधिक सुन्दर है। देवीके दोनों पाश्वों एवं ऊर्ध्व भागमें लघु स्तम्भों द्वारा कोष्ठक बनाये गये हैं। इनमें २३ तीर्थंकरोंकी शासन-रक्षिका २३ यक्षियोंका अंकन किया गया है। इन सभी यक्षियोंकी मूर्तियोंके नीचे चौखटेपर उस यक्षीका नाम भी अंकित है। ऊपरी भागमें ५ यक्षो मूर्तियां है जिनके नाम हैं-बहुरूपिणी, चामुण्डा, पद्मावती, विजया और सरस्वती। वाम पाश्वमें ७ यक्षियां हैं जिनके नाम हैं-अपराजिता, महामानुषी, अनन्तमती, गान्धारी, मानसी, ज्वालामालिनी और मानुजी। दक्षिण पार्श्ववर्ती देवियोंके नाम हैं-जया, अनन्तमती, वैराटी, गौरी, काली, महाकाली और वज्र-शृंखला। अधोभागमें ४ देवीमूर्तियाँ हैं। उनके नाम ( सम्भवतः ) रोहिणी, प्रज्ञप्ति, पुरुषदत्ता और सिद्धायिनी हैं। इन नामोंमें अनन्तमतीका नाम दो बार आया है। सरस्वती विद्यादेवी है, यक्षी नहीं। सम्भवतः इस नामका उपयोग चक्रेश्वरीके लिए हुआ है । मानुजी नामकी कोई देवी नहीं है। लगता है, 'मानवी' के स्थानपर 'मानुजी' नाम दिया गया है। . देवीके शिरोभागपर ५ तीर्थंकर मूर्तियाँ बनी हुई हैं, जिनमें ३ पद्मासन और २ खड्गासन हैं। पद्मासन प्रतिमाओंमें मध्यकी प्रतिमाके सिरपर छत्र और पीठिकापर वृषभ लांछन अंकित हैं। अतः यह प्रतिमा आदिदेव ऋषभदेवकी है। दायीं ओरकी प्रतिमाके शोर्षपर सप्त-फणावली है। अतः यह पाश्र्वनाथ प्रतिमा है। बायीं ओर पंच-फणावली होनेसे वह सुपाश्वनाथकी प्रतिमा है। दक्षिण और वाम पाश्वोंमें ८ खड्गासन तीर्थंकर प्रतिमाएं हैं। इस प्रकार कुल १३ जिन-प्रतिमाएं अंकित हैं। इनके अतिरिक्त नवग्रह और चक्रधारी यक्ष-मूर्ति भी अंकित हैं। देवीकी इतनी सुन्दर मूर्ति अन्यत्र दुर्लभ है । वस्तुतः इसे जैन शिल्पकी एक मौलिक देन कहा जा सकता है। इस मन्दिरकी निर्माण-शैली प्रारम्भिक गुप्तकालीन मन्दिरोंकी शैलीसे बहुत-कुछ मिलतीजुलती है। इसलिए इसका निर्माण निश्चित रूपसे गुप्त-कालमें हुआ होगा। यह सम्भव हो सकता है कि इस मन्दिरमें देवी-मूर्ति बादमें विराजमान की गयी हो। मन्दिरका द्वार अलंकृत है। द्वारके दोनों ओर द्वारपाल खड़े हैं। सिरदलपर तीन कोष्ठक बने हुए हैं । मध्य कोष्ठकमें पद्मासन तीर्थकर मूर्ति विराजमान है तथा दोनों कोनोंके कोष्ठक खाली पड़े हुए हैं। सम्भवतः ये मूर्तियाँ नष्ट कर दी गयीं या चुरा ली गयीं। मन्दिरको बनावटसे लगता है कि मन्दिरके आगे अर्धमण्डप रहा होगा, जिसमें ४ स्तम्भ होंगे। इस विषयमें सन्देह करनेका कोई अवकाश नहीं है कि यह मन्दिर मूलतः जैन मन्दिर है। यह शक्ति-मन्दिर या हिन्दू मन्दिर नहीं है, जैसी कि कुछ पुरातत्त्ववेत्ताओंने आशंका प्रकट की है। मन्दिरके गर्भ-द्वारके सिरदलपर तीर्थंकर मूर्तियोंका अंकन इसे जैन मन्दिर माननेको बाध्य करता है। ____ इस मन्दिरका नाम किस प्रकार 'पतियानदाई मन्दिर' हो गया, यह अवश्य अनुसन्धानका विषय है। कुछ विद्वानोंकी रायमें यह मन्दिर पहले 'पद्मावती देवी मन्दिर' कहलाता था। इसीका अपभ्रंश होकर 'पतियानदाई मन्दिर' हो गया। किन्तु अपभ्रंशवाली यह बात तर्कसंगत नहीं लगती क्योंकि मूलनायक देवीके अतिरिक्त जिन २३ देवियोंके नाम देवियोंके पादपीठपर अंकित मिलते हैं, उनमें पद्मावतीका भी नाम मिलता है। इसका अर्थ यह है कि मूलनायक देवी अन्य हो कोई है। हमारो सम्मतिमें वह देवी अम्बिका है। इसकी पहचान उसके दो पुत्रोंशुभंकर और प्रियंकर, तथा उसके वाहन सिंहसे हो जाती है।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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