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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ कुबेरदत्त खड़ा-खड़ा दोनोंका यह संवाद सुन रहा था। एक वीतराग मुनिके ऊपर ऐसा जघन्य आक्षेप होता हआ देखकर कुबेरदत्तको अन्तरात्मा उसे धिक्कारने लगी-"अधम! यह सब तेरे कुकृत्योंका भीषण परिणाम है ।" वह गया और ताम्रकुम्भ लाकर बोला, "कुम्भ मैंने चुराया था। वीतराग निर्ग्रन्थ मुनिपर दोष लगाना अनुचित है।" फिर उसने मुनिराजके चरण पकड़ लिये और फूट-फूटकर रोने लगा। रोते-रोते बोला-"भगवन् ! मैं महापापी हूँ, सप्तव्यसनी हूँ। आप मुझे पापसे छुड़ाकर जिन-दीक्षा देनेकी कृपा करें। समस्त परिग्रहका त्याग कर उसने मुनिदीक्षा ले ली, जिनदत्तने भी अपने गुरुतर अपराधको क्षमा याचना करते हुए मुनि-दीक्षा धारण कर ली। ___इसी नगरीमें सेठ सुरेन्द्रदत्त और उसकी पत्नी यशोभद्राके सुकुमाल नामक पुत्र हुआ, जिन्हें अवन्ती सुकुमाल भी कहते हैं। जब सुकुमाल यौवन दशाको प्राप्त हुए, तब पिताने पुत्रको श्रेष्ठो पट्ट बाँधकर दीक्षा ले ली। सुकुमालका विवाह ३२ सुकुमारी कन्याओंके साथ हो गया। इनका काल सुखपूर्वक बीत रहा था। एक दिन एक निमित्तज्ञने श्रेष्ठी सुकुमालका हाथ देखकर कहा, जब ये किसी मुनिके दर्शन करेंगे तो ये भी मुनि बन जायेंगे। इस भविष्यवाणीसे भयभीत होकर माताने अपने घरमें किसी भी मुनिके आनेपर प्रतिबन्ध लगा दिया। उस नगरीके नरेशका नाम प्रद्योत और महारानीका नाम ज्योतिर्माला था। एक दिन एक व्यापारी आठ रत्नकम्बल लेकर उस नगरीमें बेचने आया। वे सारे रत्नकम्बल सुकुमालकी माताने खरीद लिये और उनके चार-चार भाग करके अपनी पुत्र-वधुओंके लिए उनके जूते बनवा दिये। एक दिन छतपर रखे हुए एक जूतेको मांस-खण्ड समझकर चील ले गयी। उसने आकाशमें जाकर जूता छोड़ दिया जो राजमहलकी छतपर महारानीके पास जाकर गिरा। महारानी उसे देखकर आश्चर्यचकित रह गयी। आश्चर्य इस बातका था कि जो रत्नकम्बल महारानी नहीं खरीद सकी, किसी नागरिकने वे रत्नकम्बल खरीदकर उनके जूते बनवाये हैं। कौन है वह महाभाग कुबेर! रानीने महाराजसे इस बातकी चर्चा की। महाराजने पता लगाया। महाराजको ज्ञात हुआ कि मेरे नगरमें अवन्ति सुकुमाल ऐसा धनकुबेर है। वे स्वयं सुकुमालके प्रासादमें पहुंचे। वहां सेठ सुकुमालके वैभव और उनकी सुकुमारताको देखकर वे विस्मित रह गये। श्रेष्ठी और महाराज दोनों प्रासादके उद्यान में बनी पुष्करिणीके तटपर भ्रमणके लिए गये। महाराजकी उँगलीसे रत्नमुद्रिका निकलकर जलमें डूब गयी। तत्काल सेवक बुलाये गये। सेवंक गोता लगाकर पुष्करिणीके तलसे हाथोंमें अनेक वस्तुएँ निकालकर ले आये। महाराजने देखा-उन वस्तुओंमें अनेक अंगूठियां और मणिहार थे, जो श्रेष्ठीकी पत्नियोंके होंगे, किन्तु जिन्हें निकालनेकी भी कभी किसोने चिन्ता नहीं की थी। महाराजकी आरती कपूर-दीपोंसे की गयी, जिनके प्रकाशसे सुकुमालकी आंखोंमें आँसू आ गये। राजाके पूछनेपर माताने बताया कि सुकुमालके लिए रलदीपक ही काम आते हैं, दीपक नहीं जलाये जाते। आज दीपक जलाये गये । उनको प्रभाको सुकुमाल सहन नहीं कर सका। इसलिए उसकी आंखोंमें आंसू आ गये। एक दिन चातुर्मासकी समाप्ति पर मुनिजन प्रज्ञप्तिका पाठ कर रहे थे। उनके पाठ-स्वरसे आकृष्ट होकर सुकुमाल उनके निकट पहुंचा, उनका उपदेश सुना और उनसे यह भी ज्ञात हुआ कि मेरी आयु केवल तीन दिनकी शेष है। इससे सुकुमालने तत्काल मुनि-दीक्षा ले ली। वे महाकाल उद्यानमें एक पीलू वृक्षके नीचे जीवन पर्यन्तके लिए चतुर्विध आहारका त्याग करके ध्यानारूढ़ हो गये-निष्कषाय चित्त, सुमेरुके समान अचल, निष्कम्प !
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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