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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ और ३१ फुट चौड़ा है। इसमें एक चौकोर चबूतरा बना हुआ है। चारों कोनोंपर स्तम्भ हैं । स्तम्भों और दीवारोंपर विविध प्रकारके दृश्य अत्यन्त कलापूर्ण रीतिसे उत्कीर्ण किये गये हैं। द्वार और छतका अलंकरण दर्शनीय है। यहाँपर लगे हए एक शिलालेखसे प्रकट होता है कि कछवाहा राजपूत महीपालने इसे संवत् १०९३ में पूर्ण किया। शिलालेखसे यह प्रकट नहीं होता कि यह मन्दिर किस देव या भगवान्को अर्पित किया गया। किन्तु परम्परागत मान्यता है कि उक्त भक्त राजपूतने आष्टाह्निक व्रतके उपलक्ष्यमें नन्दीश्वर द्वीपकी अनुकृतिपर यह जैन मन्दिर बनवाया था। नन्दोश्वर द्वीपमें जानेवाले देव-देवियोंकी मूर्तियाँ नृत्य एवं विभिन्न मुद्राओंमें मन्दिरके सभी भागोंमें उत्कीर्ण करायीं। सम्भवतः मुस्लिम कालमें इसकी मूर्तिका भंजन कर दिया गया। यही कहानी इसके निकट बने बहूके मन्दिरको है । ये दोनों ही मूलतः जैन मन्दिर रहे हैं। किन्तु कुछ आधुनिक इतिहासकार सास-बहूके स्थानपर सहस्रबाहुका मन्दिर बताकर इन्हें विष्णु मन्दिर सिद्ध करते हैं। इसके समर्थनमें कोई अभिलेख या अन्य प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। अतः निश्चित रूपसे इस सम्बन्धमें कुछ कहना सम्भव नहीं है। -
इन मन्दिरोंसे आगे बढ़नेपर तेलीका मन्दिर मिलता है। इस मन्दिरका निर्माण नौवीं शताब्दीमें द्रविड़ शैलीमें हुआ है। यह १०० फुट ऊँचा है। इसमें भी वेदी सूनी पड़ी है। इसके चारों ओर बाटिकामें जैन मन्दिर या मन्दिरोंके पाषाण-स्तम्भ तथा तीर्थंकर मूर्तियां रखो हुई हैं। ये मूर्तियाँ किस मन्दिरको हैं तथा ये खुले मैदानमें क्यों रखी गयी हैं, यह ज्ञात नहीं हो सका। हमारा अनुमान है कि यह सामग्री तेलीके मन्दिर और उसके निकट बने हुए एक जीणं जैन मन्दिरकी है। तेलोका मन्दिर भी मूलतः जैन मन्दिर था। कुछ लोग इसका नाम तिलगना ( तैलंग ) कल्पित करके इसे विष्णु मन्दिर मानते हैं।
___ इस मन्दिरके निकट एक जीर्ण-शीर्ण कमरा बना हुआ है। सन् १८४४ में कनिंघमने इस ३५ फुट लम्बे और १५ फुट चौड़े कमरेको जैनोंके २३वें तीर्थकर पार्श्वनाथका मन्दिर माना था। इसका निर्माण सन् ११०८ में हुआ बताया जाता है । इसके पास ही सिखोंका गुरुद्वारा बना हुआ है। इसके सम्बन्धमें बड़ी रोचक कहानी प्रचलित है। मुगल सम्राट् जहाँगीरने सिखोंके छठे गुरु हरगोविन्दको बन्दी बनाकर इस किलेमें रखा था। थोड़े दिनोंके बाद जहाँगीर बीमार पड़ गया। कुछ लोगोंने बादशाहको परामर्श दिया कि गुरुको छोड़ दो। जहाँगीरने तदनुरूप आदेश दे दिया। किन्तु गुरुने अपने साथियोंको पहले रिहा करनेकी शर्त रखी। अपनी बढ़ती हुई बीमारीके कारण जहाँगीरको गुरुकी बात माननी पड़ी। जिन लोगोंने गुरुका दामन पकड़ा, वे सब मुक्त कर दिये गये । इसलिए गुरुका नाम 'दाता बन्दी छोड़' पड़ गया। गुरुके कारण सिखोंके लिए यह तीर्थस्थान बन गया और उन्होंने गुरुकी स्मृति सुरक्षित रखनेके लिए यहाँ गुरुद्वारा बनवा लिया।
यहाँसे कुछ आगे जानेपर सिन्धिया स्कूलके छात्रावासके सामने सूरज-कुण्ड बना हुआ है। यह वही कुण्ड बताया जाता है जिसके जलमें स्नान करनेसे राजा सूरजसेनका कुष्ठ रोग दूर हो गया था। कुण्डके चारों ओर पक्के घाट और सीढ़ियाँ बनी हुई हैं । कुण्डके मध्यमें और किनारेपर हिन्दुओंने कुछ मन्दिर बना लिये हैं।
. इससे आगे बढ़नेपर मान-मन्दिर मिलता है। राजा मानसिंह तोमरवंशके नरेशोंमें प्रभावशाली नरेश था । वह सन् १४८६ में गद्दीपर बैठा। वह अत्यन्त कला प्रेमी था । उसके क्लएरेसका हो नमूना यह मान-मन्दिर है । कलाकी दृष्टि से भारतके भवनोंमें इसका बहुत ऊँचा स्थान है। यह भवन मानसिंहका निवास स्थान था। इसकी यद्यपि दो मंजिलें हैं किन्तु पहाड़की ओर झुके हुए पश्चिमी भागमें दो मंजिलें जमीनके नीचे भी हैं। इसमें जालीकी महीन कारीगरी और रंग