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________________ २२२ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ निर्दिष्ट स्थान ) पहुंचे। वहाँ सबने मिलकर भूमिकी खुदाई की। कुछ समय बाद एक मूर्ति दिखाई पड़ी। उसे सबने मिलकर बाहर निकाला। मूर्तिको देखकर सबके मन हर्ष और भक्तिसे भर उठे। मूर्तिको वहीं विराजमान करके सबने भक्तिभावसे पूजन किया। तत्पश्चात् मूर्तिको वहाँसे उठाकर ले गये और रेलवे लाइनके किनारे पंचायती मन्दिरमें विराजमान कर दिया। यह सातिशय मूर्ति भगवान् शान्तिनाथकी कही जाती है। यह सिलेटी वर्णकी खड्गासन मूर्ति ८ फुट ३ इंच ऊंची और ३ फुट १० इंच चौड़ी है और देशी पाषाणसे निर्मित है। इस मूर्तिपर कोई लेख या चिह्न नहीं है। इस मूर्तिके अतिशयोंके सम्बन्धमें जनतामें अनेक किंवदन्तियां प्रचलित हैं। क्षेत्र-वर्शन जबलपुर-कटनी मार्गपर स्थित इस नगरमें कई स्थानोंपर मन्दिर हैं। महल्ला बजरियामें ४ मन्दिर हैं, महल्ला बाजार में २ मन्दिर हैं तथा रेलवे लाइनके किनारे एक अहातेमें ८ मन्दिर हैं और ३ मन्दिर अहातेके बाहर हैं। रेलवे लाइनके किनारेके मन्दिर-समूहमें कुल १२ वेदियां बनी हुई हैं और ११ शिखर हैं। पंचायतो मन्दिर ही अतिशय क्षेत्र कहलाता है। पंचायती मन्दिरमें भगवान् पार्श्वनाथकी एक श्वेतवर्ण प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में अवस्थित है। यह ४ फुट ८ इंच ऊँची और ३ फुट ३ इंच चौड़ी है। यह संवत् १८५८ की है । कानसे छाती तक मूर्तिपर धारियाँ हैं । ये धारियाँ पाषाणकी हैं और पालिशसे भी ये दब नहीं पायी हैं। मूर्ति आकर्षक और भव्य है। इस क्षेत्रकी मुख्य मूर्ति भगवान् ऋषभदेवकी है। यह कायोत्सर्गासन मुद्रामें ध्यानावस्थित है। इसकी ऊँचाई ८ फुट ३ इंच तथा चौड़ाई ३ फुट १० इंच है। यह सलेटी वर्णके देशी पाषाणसे निर्मित है। चरणोंके नीचेका भाग पृथ्वीमें दबा हुआ है। अतः इसका लांछन दिखाई नहीं पड़ता। परम्परागत अनुश्रुतिके आधारपर इसे शान्तिनाथ भगवान्की मूर्ति माना जाता है। किन्तु मूर्तिकी बढ़ी हुई जटाओं और स्कन्धोंपर पड़ी हुई तीन लटोंसे यह मूर्ति ऋषभदेव तीर्थंकरको प्रतीत होती है। चरण-चौकी भूमिके नीचे दबी होनेके कारण लांछनके समान लेख भी अपठित ही बना हुआ है। जबतक शान्तिनाथ भगवान्का लांछन हरिण स्पष्ट दिखाई न दे जाये अथवा जटाओंके रहनेपर भी अन्य कोई स्पष्ट प्रमाण प्राप्त न हो जाये, तबतक इस मूर्तिको ऋषभदेव भगवान्की मूर्ति मानना ही संगत होगा। मति यद्यपि अखण्डित है किन्तु सिरके पास शिलाका भाग कुछ खण्डित है। गन्धर्व, चमरेन्द्र और छत्र नहीं हैं । परिकरमें केवल व्याल ही कहे जा सकते हैं जो मूर्तिके दोनों ओर बने हुए हैं। भामण्डल आधुनिक लगा हुआ है। मूर्तिको कलापर मध्यकालको कलचुरि-कलाका प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, अतः हम यह मूर्ति ११वीं-१२वीं शताब्दीकी मान सकते हैं। एक वेदीमें नन्दीश्वर जिनालयको मनोज्ञ रचना है। ऊँचाई २ फुट १ इंच है। मूर्ति कृष्ण पाषाणकी है। इसी वेदीपर संवत् १५४८ की पाश्वनाथकी और संवत् १८३८ की शान्तिनाथकी मूर्तियाँ विराजमान हैं । यहीं कृष्ण पाषाणकी तीन प्राचीन मूर्तियाँ एक शिलाफलकमें बनी हुई हैं। ये किसी मूर्तिका ऊपरी भाग मालूम पड़ती हैं। बरामदेमें एक प्राचीन मूर्ति १ फुट ४ इंच अवगाहनाकी और १ फुट १० इंच चौड़ी रखी हुई है। यह श्यामवर्ण है। इसके परिकरमें भामण्डल, छत्र, गज, नभसे पुष्पवर्षा करते हुए विद्याधर, चमरेन्द्र आदिका अंकन मिलता है तथा मूर्तिके दोनों पावोंमें खड्गासन तीर्थंकर-मूर्तियाँ हैं।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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