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________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ भट्टारक-पीठ इस नगरके हरिसिंह सिंघईके मन्दिरमें तथा नन्दीश्वरद्वीप जिनालयमें कई मूर्तियोंपर भट्टारक देवेन्द्रभूषण और भट्टारक नरेन्द्रभूषणके नाम मिलते हैं। इन मूर्ति-लेखोंमें इन भट्टारकोंका काल क्रमशः संवत् १८५३ और १८७५ मिलता है। जैन क्षेत्रके निकट 'बलहा' तालाबके किनारे छह या आठ स्तम्भोंपर आधारित तीन मण्डप बने हुए हैं। इन मण्डपोंमें चरण- चिह्न विराजमान हैं। ये चरणचिह्न भट्टारकोंके बताये जाते हैं। क्षेत्रके बड़े मन्दिरमें अब भी 'जती बाबा' ( भट्टारक ) की गद्दी बनी हुई है। उपर्युक्त कारणोंसे प्रतीत होता है कि यहां भट्टारक-पीठ था। मूर्ति-लेखोंमें जिन भट्टारकोंका नामोल्लेख हुआ है अर्थात् जिनके उपदेशसे अथवा जिनके द्वारा यहां मूर्ति-प्रतिष्ठा हुई, उनके गण-गच्छ आदिका उल्लेख इस भांति हुआ है-"श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये", अर्थात् यहाँके भट्टारक मूलसंघ, बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छ और कुन्दकुन्दाचार्यान्वयसे सम्बन्धित थे। मूर्तिलेखोंमें यहाँकी पट्टावली इस भौति दी गयी है-श्री मुनीन्द्रभूषणदेवास्तत्पट्टे जिनेन्द्रभूषणदेवास्तत्पट्टे देवेन्द्रभूषणदेवास्तत्पट्टे नरेन्द्रभूषणदेवाः। इस पट्टावलीसे ज्ञात होता है कि पनागर क्षेत्रके भट्टारक बलात्कारगणकी सोनागिरि-शाखाके थे। भट्टारक मुनीन्द्रभूषण, जो विक्रम संवत्की उन्नीसवीं शताब्दीके मध्यमें हुए, की परम्परामें सोनागिरिके पट्टपर क्रमशः जिनेन्द्रभूषण, देवेन्द्रभूषण, नरेन्द्रभूषण, सुरेन्द्रभूषण, चन्द्रभूषण आदि भट्टारक हुए। ये भट्टारक यद्यपि सोनागिरि-पीठके थे, किन्तु इनके कुछ उपपीठ भी थे और उन स्थानोंपर ये लोग कुछ कालके लिए जाते रहते थे। पनागर भी इन भट्टारकोंका उपपीठ अथवा अस्थायी पीठ था। सोनागिरिके भट्रारक यहां समय-समयपर आया करते थे और मन्दिर निर्माण, मूर्ति-प्रतिष्ठा आदि धर्मप्रभावनाके कार्य किया करते थे। पनागरका पंचायती मन्दिर समाजके सहयोगसे किन्हीं भट्टारकका बनवाया हुआ है, ऐसा कहा जाता है। यहाँ भट्टारक-पीठ कितने समय तक स्थापित रहा, इस बातका कोई निश्चित साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता। किन्तु इसमें सन्देह नहीं है कि बलात्कारगणकी सोनागिरि-शाखाके भट्टारकोंका ही यहाँके साथ सम्बन्ध रहा है। अतः यहाँका भट्टारक-पीठ ईसवी सन्की १८वीं शताब्दीके अन्तिम भाग अथवा १९वीं शताब्दीके प्रारम्भमें स्थापित हुआ और २०वीं शताब्दीके कुछ दशकों तक कार्यरत रहा। पुरातत्त्व पनागर किसी कालमें बहुत वैभवसम्पन्न नगर था। इसके आसपासमें प्राचीन कलचुरिशिल्पके सुन्दर जैन मन्दिरों और मूर्तियोंके अवशेष पर्याप्त मात्रामें उपलब्ध होते हैं। जैन क्षेत्रके समीप कुछ जैन शिल्पावशेष एक बाड़ेमें विद्यमान हैं। इन अवशेषोंमें खण्डित तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं, शासन-देवियोंकी मूर्तियाँ हैं तथा अलंकृत स्तम्भ हैं। आदिनाथकी एक सिरविहीन मूर्ति है। इसकी ग्रीवाकी तीन आवलियों एवं स्कन्धोंपर केशावलीका अंकन अत्यन्त सधे हुए हाथोंसे हुआ है। अधोभागमें दोनों कोनोंपर गोमुख यक्ष और चक्रेश्वरी यक्षीका अंकन किया गया है। चरण-चौकीके मध्यमें वृषभ लांछन अंकित है। यहाँ कई मूर्तियोंके केवल शिरोभाग, कई मूर्तियोंके केवल धड़ और कुछ मूर्तियोंके आसनमात्र ही मिलते हैं।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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